रविवार, 16 मई 2010

एक और हालात - 2

हम लोग उसे भूत कहते थे। नाम था - भूतनाथ। मजाक-मजाक में उसके लिए चुटकुला भी बना लिया था कि ...भूत आ जाएगा। दरअसल, जब भी कुछ खाने (या पीने) बैठो तो वह अचानक ही आ धमकता था और बिना कुछ कहें, पूछे ही हमारी बैठकी का हिस्सा बन जाता था। खाने-पीने का सारा कार्यक्रम दफ्तर में शाम को छुट्टी के बाद शुरू होता था। भूत की पत्नी गांव में थी। वह यहां शहर में अपनी बूढ़ी मां के साथ ही था। किसी प्रायवेट कंपनी में काम करता था। कहते हैं कि उसकी बूढ़ी मां टोनही थी। उससे सब डरते थे। हालांकि मुझे इसमें कोई सच्चाई कभी नजर नहीं आई। कभी-कभी हम तीन-चार लोग चंदेबाजी कर मुर्गा वगैरह भी लाते थे, जिसे भूत ही अपने घर में पकाता था। चावल वह अपनी ओर से पका लाता था। दफ्तर से ठीक बाजू में उसका झोपड़ीनुमा घर आज भी है। पर आज न भूत है, न उसकी बूढ़ी माँ। भूत की मौत को 5 साल गुजर गए हैं, जबकि बुढ़ी माई दो साल पहले चल बसी। घर पर भूत की पत्नी के रिश्तेदारों का कब्जा हो गया है।

अखबार से जुड़े लोगों को यह भलीभांति मालूम होगा कि दीपावली का त्यौहार अखबारनवीसों, खासकर अखबार मालिकों के लिए खूब लक्ष्मी लेकर आता है। हर साल दीवाली से हफ्ते-पंद्रह दिन पहले ही प्रेस में विज्ञापनों का काम शुरू होता है और दीवाली को 20-30 पृष्ठों का अखबार निकाला जाता है, जिसमें पढऩे को तो कुछ नहीं होता, पर भरपूर विज्ञापन जरूर होते हैं। अखबारों को यही विज्ञापन चलाते हैं, पर दीपावली में अखबार मालिकों के लिए जमकर धन बरसता है। ...वह यही दीवाली के आसपास का वक्त था, जब हम लोग शाम से लेकर देर रात तक विज्ञापनों को कम्प्यूटर पर तैयार करवाते और प्रूफरीडिंग करते थे। क्योंकि यह अतिरिक्त काम होता, इसलिए रोजाना व्हिस्की की एक बोतल जरूर आती। ..और हाँ, खाना तो रोज भूत के घर पर बनता ही था। हम चार-पांच लोग जमकर पीते और खाते। मौज-मस्ती तो खैर होती ही।
वह ठंडक बरसाती उजली रात थी। करीब 10 बज रहे थे। पूरा मोहल्ला खामोश होते आ गया था और पास की बड़ी नाली से मेढ़क के टर्राने की आवाज आ रही थी। भूत ने दूसरा पैग गले से उतारने के बाद बताया कि उसे पीलिया हो गया है और पिछले कई दिनों से वह काम पर नहीं गया है। पीलिया की खबर हमारे लिए नई थी। इस पर वह पिछले कई दिनों से हमारे साथ शराब और मांस का सेवन कर रहा था। समझाईश के बाद भी वह नहीं माना तो हम सबने तय किया कि अब न उससे खाना बनवाना है और न ही उसे शराब ही पिलानी है। अगले दो दिनों तक वह इसी लालसा में आता रहा कि उसे खाने-पीने को मिलेगा, लेकिन हमने उसे साफ मना कर दिया। हालांकि उसके मुंह से देसी शराब का भभका बराबर उठता रहा। दो-तीन दिनों के बाद शाम को पता चला कि उसे सरकारी अस्पताल में भर्ती करा दिया गया है। ...और उसके अगले ही दिन उसकी मौत हो गई। रात करीब 8 बजे थे, जब भूत की बूढ़ी मां अपने दोनों हाथों में लाठी पकड़े दफ्तर के भीतर तक चली आई। उसकी आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे। उसी ने बताया कि उसका बेटा अब इस दुनिया में नहीं रहा। पास ही एक बदनाम महिला डाक्टर भी रहती थी। इस डाक्टर की दो बोटियां हैं, लेकिन उन्हें कभी किसी ने नहीं देखा। एक बेटा भी है जो विदेश में रहता है। पति की मौत काफी पहले हो चुकी थी। कुल मिलाकर डाक्टर तीन मंजिला मकान में अकेली ही रहती थी। जब कभी उसे कोई छोटा-मोटा काम करवाना होता, भूतनाथ को ही याद किया जाता था।
...तो भूतनाथ की मौत की खबर देने जब बूढ़ी मां बड़ी मुश्किल से उस डाक्टर के घर पहुंची तो करीब 20 मिनट तक उसके घर का दरवाजा नहीं खुला। डाक्टर नीचे डिस्पेंसरी चलातीं थीं और प्रथम तल पर उसका रहना होता था। कहते हैं कि महिलाओं की विशेषज्ञ यह डाक्टर सैकड़ों अजन्में बच्चों की मौत की वजह रही हैं। और कि शहर में उसकी पहचान गर्भपात विशेषज्ञ के रूप में रही है। ...और कि ऐसा कई बार हुआ जब आसपास के इलाकों में हथेली में समा जाने वाले मृत नवजात मिले। खैर, बीस मिनट के बाद जब दरवाजा खुला तो बिना कोई जाने-समझे सबसे पहले तो डाक्टर ने बुढिय़ा को जमकर गालियां दीं। नींद खराब करने के लिए उसे जमकर कोसा। इस दौरान बुढिय़ा पूरे समय जोर-जोर से रोती रही।

महिला डाक्टर ने जब अपनी पूरी भड़ास निकाल ली तो जोरदार आवाज में पूछा, - रो क्यों रही है.. कोई मर गया है क्या? बुढिय़ा ने उसी तरह रोते हुए बताया - मोर बेटा मर गे....।

...तो मैं क्या करूं...? मेरे पास आएगी तो जिंदा हो जाएगा क्या...। - डाक्टर से इतनी बेरूखी की उम्मीद हममे से किसी ने नहीं किसी की थी।

बताए ला आए हव...- बूढिय़ा ने रोते हुए कहा तो डाक्टर का जवाब था - बता दिया न.. अब जा, चल निकल यहां से...। उसने हाथ की उंगली से ईशारा करते हुए कहा - अब मत आना मेरे पास। - इतना कहने के बाद डाक्टर ने दरवाजा बंद कर लिया। बुढिय़ा रोती हुई अपनी झोपड़ी में आ गई। पूरी तरह अकेली, एक सुनसान घर में, जहां अब उसका इकलौता बेटा भी नहीं था।

दफ्तर के सभी साथियों का मन खराब हो चुका था। किसी की काम करने की इच्छा नहीं हुई। हम सब दफ्तर बंद कर अपने-अपने घर रवाना हो गए। ..पर रात का अधिकांश वक्त करवटे बदलते हुए बीता। सुबह 10 बजे के आसपास जब दफ्तर पहुंचा तो भूतनाथ का शव लाने की तैयारी थी। झोपड़ी के बाहर बांस की अर्थी सजाई जा रही थी। थोड़ी ही देर में सरकारी एंबुलेंस में भूत का शव लाया गया। और कुछ ही देर बाद उसकी अंतिम यात्रा भी निकल गई। इस दौरान पड़ोस की महिला डाक्टर के यहां मरीजों की भीड़ लगी थी। वह अपने मरीजों में व्यस्त थी और इधर, भूत की बूढ़ी मां के आंसू रोके नहीं रूक रहे थे।

(मित्रों, इस कहानी के तीनों प्रमुख पात्रों, भूतनाथ, उसकी बूढ़ी मां और महिला डाक्टर की मौत हो चुकी है। भूतनाथ की मौत के तीन साल बाद उसकी बूढ़ी मां की गांव में मौत हो गई। जबकि डाक्टर ने अभी पिछले साल ही दम तोड़ा।)

शनिवार, 15 मई 2010

एक और हालात-1

परसो हालात शीर्षक से एक पोस्ट लिखी थी। दरअसल, मन भारी हो गया था और उसे हल्का करना जरूरी था। अगर यह पोस्ट नहीं लिखता तो किसी छपास रोगी या नेता की ऐसी-तैसी होना तय थी। पर शुक्र है, पोस्ट लिख ली और मन भी हल्का हो गया। बिगूल वाले भाई राजकुमार सोनी ने अभी कुछ दिन पहले ही कहीं टिप्पणी थी कि ब्लाग जगत में ..तू मेरी खुजा मैं तेरी खुजाऊ.. वाली स्थिति है।

मैं सबकी नहीं खुजा पाता। इसलिए शायद सब मेरी खुजाने भी नहीं आएंगे। हाँ, कुछ पाठक जरूर मिल रहे हैं। सच कहूं तो दिनभर लोगों की नहीं खुजा पाने की वजह यह है कि मैं दो अखबारों के लिए प्रत्यक्ष और एक अखबार के लिए अप्रत्यक्ष रूप से काम कर रहा हूं। पत्रकार हूं पर भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा नहीं हूं। इसलिए घर परिवार चलाने के लिए तीन जगह काम करना पड़ रहा है। यहां तो भाई लोग दो हजार की तनख्वाह पर भी शान से जी रहे हैं। अपनी तो तीन जगह काम करने के बाद भी घरपूर्ति ही हो पा रही है। खैर, होता है। दुनिया में मुझ जैसे पागलों की कमी नहीं है। 

...तो बात पिछली पोस्ट हालात से शुरू की थी। इस पोस्ट पर पत्रकार साथी रितेश टिकरिहा ने टिप्पणी की है और 4-5 साल पुराने एक वाकये को भी ताजा कर दिया। यह वाकया भी कमोबेश वैसा ही था, जैसा हालात में उस अधेड़ का। एक वृद्ध महिला की बेबसी और एक महिला डाक्टर की बेशर्मी की यह दास्तान मैं अगले अंक में सुनाऊंगा। फिलहाल थोड़ा सा ब्रेक ले लिया जाए। अगले अंक में नो बकवास... ओनली एक और हालात...।

शुक्रवार, 14 मई 2010

हालात

35 रूपए में लेना है तो ले, उससे कम नहीं होगा। कंडरा बस्ती की उस महिला के मुंह से ऐसे कटु शब्द सुनकर उस आदमी का चेहरा बेचारगी की हद पार कर गया। उसने बेबस नजरों से महिला को देखा, पर महिला के चेहरे पर कोई भाव नहीं था।

आज सुबह आफिस के लिए निकलने गाड़ी उठाई तो उसने जवाब दे दिया। ..तो आज पैदल ही निकल पड़ा। घर से दफ्तर बहुत दूर नहीं है। रास्ते में ही कंडरा बस्ती पड़ती है। इसी बस्ती से गुजरते वक्त इस भीषण गर्मी में भी हाथ बांधकर खड़े एक अधेड़ पर मेरी नजर गई। सिर पर छोटे-छोटे बाल थे जो पूरी तरह भीग चुका था। वहां से पसीने की बूंदे उसके चेहरे पर आड़ी-तिरछी लकीरें बनाकर उसकी चमक खो चुकी सफेद कमीज पर गिरकर यहां-वहां बिन्दू बना रही थी। कमीज अस्त-व्यस्त थी और कमीज के नीचे उसने एक गमछा लपेट रखा था। एक दुबलाया, मरियल-सा अधेड़। पैर पर चप्पल भी नहीं थी। आंखों में नशा छाया हुआ था और पहली ही बार में देखकर कोई भी कह सकता था कि यह आदमी रातभर सोया नहीं है।

मुझे समझते देर नहीं लगी कि माजरा क्या है। इसी कंडरा बस्ती में एक भाजपा का छोटा नेता भी रहता है। पूरी स्थिति पर नजर रखने मैंने उस भाजपा नेता को आवाज लगाई और वहीं खड़ा हो गया।

दे दे दीदी.. 35 रूपया कहां ले लाव.. 22 ठन रूपया धरे हव। दे दे बहिनी...। उसके शब्दों में दर्द था और वह बुरी तरह गिड़गिड़ा रहा था। ..पर महिला को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। वह वापस भीतर चली गई तो अधेड़ वहीं हाथ बांधे उस दरवाजे पर टकटकी लगाए खड़ा उसके बाहर निकलने का इंतजार करने लगा।

क्या हो गया? - मैंने पूछा तो उसने मेरी तरफ देखे बिना ही जवाब दिया- कुछु नई..।

मैंने कुरेदने के से अंदाज में कहा - क्या मैं कोई मदद कर सकता हूँ?

उसने पहली बार दरवाजे से नजरें हटाई और मेरी ओर देखने लगा। उसकी आंखों में पानी उतर आया और पसीने की बूंदों के साथ मिलकर कहीं खो गया। नि:संदेह उसे मदद की जरूरत थी और मेरी ओर से हुई पहल पर उसकी आस बंध गई थी।

क्या बात है? मुझे बताओ... शायद मैं कोई मदद कर पाऊं?

चार महीने से बीमार हूं। घरवाली झाड़ू-पोंछा कर कमाती थी, पर कल शाम वह भी गुजर गई। - उसने कहा - मेरे शरीर में प्राण नहीं बचे। चलने और बात करने में तकलीफ होती है। घर में कुछ नहीं है। घरवाली का संस्कार कैसे करूं?

उसने बोलना बीच में रोककर मेरी आंखों में कुछ तलाशा और संतुष्ट होकर आगे कहने लगा - किसी तरह 22 रूपए लेकर आया हूं। पर काठी के लिए एक बांस 40 रूपए में दे रहे हैं। कहती है कि 5 रूपए कम कर दूंगी।

अब तक वह छुटभैय्या नेता भी आ गया था। मैंने अलग ले जाकर उससे बात की। अपनी ओर से कुछ रूपए दिए और उसे तमाम हालात बताकर काठी के लिए पूरे बांस की व्यवस्था करने को कहा।

घड़ी देखी तो 11 बज रहे थे। मुझे 10 बजे दफ्तर पहुंचना था। मैंने अपनी जेब में हाथ डालकर पर्स निकाला और 100 रूपए का एक नोट उस अधेड़ के हाथ में पकड़ा दिया। बिना उसे देखे, बिना मुड़े मैं आगे बढ़ गया।

मंगलवार, 11 मई 2010

पसंद करने पर नापसंद क्यों हो रहे हैं चिट्ठे

दोस्तों, पूरे यकीन के साथ कह रहा हूं कि ब्लागर साथियों के साथ काफी कुछ गलत हो रहा है। यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है कि टॉप लिस्ट में शामिल होने के लिए कई लोग किस तरह की लामबंदी और गिरोहबंदी कर रहे हैं। लेकिन पिछले कुछ दिनों से मेरे साथ जो हो रहा है, वह सबके साथ बांटना चाहता हूं। अभी शनिवार की बात है। मैंने एक ब्लाग को पसंद किया तो वह -2 (माइनस 2) हो गया। यानि यह बताया गया कि इस ब्लाग को दो लोगों ने नापसंद किया है। जबकि इससे पहले पसंद या नापसंद शून्य बता रहा था।) पसंद के बाद माइनस में जाना मुझे समझ में नहीं आया। कल भी मैंने एक ब्लागर का चिट्ठा जब पसंद किया (जिसे पहले से ही 3 लोगों ने पसंद किया था) तो भी मेरी पसंद नकारात्मक गई। जबकि मैं यह बेहतर जानता हूं कि चिट्ठे को पसंद कैसे किया जाता है और नापसंद कैसे? मंगलवार शाम को जब मैंने एक घटिया किस्म के ब्लाग को नापसंद किया तो आश्चर्यजनक रूप से दो अंक प्लस में चला गया। ब्लाग जगत के दिग्गजों से मैं यह जानना चाहता हूं कि क्या ऐसा भी हो सकता है? कृपया मुझे बताएं कि पसंद करने वाले नापसंद और नापसंद करने वाले पसंद कैसे बन रहे हैं।

एक बात और बताना चाहूंगा। एक महिला के जब मैंने टिप्पणी भेजी तो संदेश आया कि आप इस ब्लाग पर संदेश नहीं भेज सकते। जबकि मैंने उस महिला की पंक्तियों को सराहा था। क्या ऐसा हो सकता है कि कुछ लोग अपने ब्लाग में ऐसे ईमेल डालकर रखें, जिनकी टिप्पणी प्रकाशित ही न हो पाए? इससे पहले एक सज्जन के साथ भी मेरा यही अनुभव रहा है और मजे की बात यह है कि यह दोनों एक दूसरे के साथ हैं। इसे क्या माना जाए?

सोमवार, 10 मई 2010

चेंदरू के बेटे को शिक्षक बना दो

                                     (नरेश सोनी)

क्या आप चेंदरू को जानते हैं? सवाल अजीब लग सकता है - कौन चेंदरू? 1960 के दशक में एक 10 साल का माडिय़ा आदिवासी अंतरराष्ट्रीय नायक बनकर उभरा था। चेंदरू पर स्वीडिश फिल्मकार अर्ने सुकेड्राफ की पत्नी एस्ट्राइड सुकेड्राफ ने एक किताब लिखी थी। इस किताब का विलियन सैमसंग ने अंग्रेजी अनुवाद किया। बाद में अर्ने ने 10 साल के चेंदरू के जीवन का पूरे 2 साल तक फिल्मांकन किया। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर चेंदरू और उसका शेर नामक यह फिल्म बेहद कामयाब रही। जिसके बाद किसी अबूझमाडिय़ा को पहली बार विदेश जाने का भी अवसर मिला। बाद में फ्रांस में भी चेंदरू एट सन टाइगर नाम की पुस्तक छपी। अमेरिका में भी इसी दौरान चेंदरू : द ब्वाय एंड द टाइगर के नाम से किताब प्रकाशित हुई। अभी कुछ समय पहले ही चेंदरू और उसके जीवन पर एक समाचार चैनल ने घंटेभर का विशेष कार्यक्रम भी प्रसारित किया था और उसकी वर्तमान बुरी हालत की परतें खोली थी। अबूझमाड़ के इसी चेंदरू का बेटा शिक्षक बनना चाहता है।

चेंदरू की कहानी विदेशों में शायद इसीलिए पहचान बना पाई कि एक 10 साल के लड़के का दोस्त एक व्यस्क शेर था। चेंदरू सारा दिन इसी शेर के साथ जंगलों में घूमता, शिकार करता। शायद विदेशों में इस कहानी की लोकप्रियता टारजन जैसी फिल्मों की वजह से हुई। टारजन को काल्पनिक पात्र माना जाता है, लेकिन भारत के बेहद पिछड़े परिवेश में एक वास्तविक टारजन का हीरो बन जाना वाकई चकित करने वाला है। चेंदरू तो अनपढ़ था, किन्तु उसने अपने बच्चों को पढ़ाया। उसका बेटा जयराम शिक्षाकर्मी बनना चाहता है। वह बस्तर जैसे पिछड़े इलाके खासकर अबूझमाड़ में शिक्षा की अलख जगाने का इच्छुक है। वैसे, एक नंगी सच्चाई यह भी है कि नारायणपुर जिले के गड़बेंगाल में रहने वाले चेंदरू का परिवार दो जून की रोटी का भी मोहताज है। समाचार चैनल में चेंदरू की लम्बी स्टोरी चलने के बाद बस्तर के प्रभारी मंत्री केदार कश्यप ने चेंदरू को 25 हजार रूपए का अनुदान दिया था। लेकिन उसके बाद से कभी, किसी ने इस परिवार की सुध नहीं ली। जबकि नारायणपुर जिले का अबूझमाड़ ही वह क्षेत्र है, जो सबसे ज्यादा नक्सल प्रभावित है। सरकार ने इस क्षेत्र के शिक्षिक बेरोजगारों को सरकारी नौकरी देने का ऐलान किया था, लेकिन यह ऐलान जमीन पर आकर कब का दम तोड़ चुका है। एक ओर जहां बस्तर के भीतरी इलाकों में जाकर कोई काम करना नहीं चाहता तो दूसरी ओर इच्चुक स्थानीय लोग ही उपेक्षित हैं। इस विडंबना से पार पाना बड़ी चुनौती है।

शुक्रवार, 7 मई 2010

अटका-मटका, मारो-फटका

अपन ने अपने ब्लाग का वर्ग बदल लिया है। क्या करें, मजबूरी थी। भाई-दीदी लोग टिप्पणी करने में भी कंजूसी कर रहे थे। कंजूसी क्या कर रहे थे, समाचारों को पसंद नहीं कर पा रहे थे। अब जब पसंद ही नहीं आएगा तो टिप्पणी क्या खाक करेंगे? ...तो इसलिए फुल एंड फाइनल अब छत्तीसगढ़ खबर में

मौज और मस्ती
चायपत्ती सस्ती
पुराने विचार नस्ती।

पिछले तीन महीनों से लगातार ब्लाग पढऩे और शीर्ष पर चढऩे वाले ब्लागों को देखने के बाद यह नतीजा निकला है कि अब मैं भी

अटका-मटका
मारो-फटका
झूमो-झटका
उठाओ-पटका
आओ-खाओ
पिओ-सुस्ताओ
सोओ-मस्ताओ...

..टाइप का कुछ लिखने की कोशिश करूंगा। क्षमा कीजिएगा, पर कोशिश करूंगा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि आज से पहले कभी इस तरह की चीजें लिखी नहीं है। जानता हूं कि इसके बाद भी कोई गारंटी नहीं है पसंद ही किए जाएं, पर रिस्क लेने में खर्च क्या होना है? तो मित्रों, आज से अपन भी नए सिरे से मैदान में उतर रहे हैं। स्वागत नहीं करेंगे क्या?

मंगलवार, 4 मई 2010

जहर चाटने के बाद छटपटाते रमन

- नरेश सोनी -

सामान्य बुद्धि का कोई भी व्यक्ति यह बेहतर जानता है कि जहर का सेवन कितना घातक होता है। शायद इसीलिए कांग्रेस इस जहर को चाटने से बचती रही है। उसे यह भलीभांति मालूम था और है कि इससे मौत भी हो सकती है। लेकिन छत्तीसगढ़ की नब्ज पर हाथ धरे बैठे मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को शायद यह मालूम नहीं था कि 'यह गरल कितनी छटपटाहट देगा? नतीजतन उन्होंने यह गरल धारण कर लिया और अब जाहिर है कि परेशान हो रहे हैं।

मामला सिंह बनाम सिंह का है। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के एक लेख का सार यह निकला कि वे अपनी ही केन्द्र सरकार के गृहमंत्री पी. चिदम्बरम की नक्सल नीतियों से सहमत नहीं है। मसला क्योंकि छत्तीसगढ़ से भी जुड़ा था, इसलिए यहां के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह का लाल-पीला होना लाजिमी था। तो बात यहां तक पहुंची कि डॉ. सिंह ने भी अखबारों में अपना लम्बा-चौड़ा लेख छपवा लिया। इस लम्बे-चौड़े लेख की भाषा से दिग्विजय सिंह ने असहमति जाहिर की और डॉ. रमन सिंह को एक पत्र लिख मारा। बस, छत्तीसगढ़ में अभी यही सब कुछ चल रहा है। दिग्विजय सिंह खुली चर्चा की चुनौती दे रहे हैं और डॉ. रमन सिंह उसे स्वीकार कर रहे हैं। दरअसल, डॉ. रमन सिंह 6 वर्षों से छत्तीसगढ़ से नक्सलवाद के खात्मे के लिए प्रयासरत् रहे हैं। इसके लिए उन्हें लम्बी जुगत भी लगानी पड़ी। सबसे बड़ी समस्या जनमत तैयार करने की थी। इससे भी बड़ी समस्या केन्द्रीय मदद लेना थी। लेकिन केन्द्र सरकार नक्सलवाद को बड़ी समस्या मानने से ही हिचकती रही। तो सबसे पहले तो नक्सलवाद को सबसे बड़ी चुनौती साबित करना ही समस्या थी। इसमें कामयाबी मिली तो केन्द्र से मदद के दरवाजे खुल गए और नक्सलियों के खात्मे की तैयारियां भी शुरू हो गई। ऐसे में नक्सलियों का बौखलाना लाजिमी था। नतीजतन सलवा जुड़ूम से जुड़े लोगों, जवानों का कत्लेआम शुरू हो गया।

क्या कोई भी लड़ाई बिना कुर्बानी के नतीजे तक पहुंच सकती है? कांग्रेस ने लड़ाई लडऩे का कभी मन ही नहीं बनाया। वह कुर्बानियों से डरती रही। नतीजतन नक्सली फलते-फूलते और अपने को मजबूत करते रहे।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद ने गहरी जड़ें काफी पहले ही जमा ली थी। लेकिन अविभाजित मध्यप्रदेश की तत्कालीन दिग्विजय सिंह सरकार हो या विभाजन के बाद छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी, दोनों ने ही इन जड़ों को काटने के बजाए इससे परहेज करना ज्यादा मुनासिब समझा। यही वजह रही कि कांग्रेस के इस 10 वर्षीय (7 साल दिग्विजय सिंह, 3 साल अजीत जोगी) कार्यकाल में नक्सलियों की समानांतर सरकार चलती रही और अपने आपको मजबूत करती रही। इस दौरान क्योंकि बस्तर के भीतरी इलाकों तक सरकार की पहुंच नहीं बन पाई (या फिर जानबूझकर इस इलाके को छुआ ही नहीं गया) इसलिए धीरे-धीरे पूरा बस्तर नक्सलियों की जद में आ गया। छत्तीसगढ़ का मुख्यमंत्री बनने के बाद डॉ. रमन सिंह के सामने सिर्फ दो ही मसले थे। पहला राज्य का विकास और दूसरा नक्सलवाद से निपटने की चुनौती।

कई लोग यह सवाल उठाते रहे हैं कि जब राज्य में सब कुछ 'ठीक-ठाक चल रहा था तो नक्सलियों को 'उंगली क्यों की गई? पर यहां इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि नक्सलवाद कभी सामाजिक समस्या थी, पर बदलाव के साथ अब यह आपराधिक चुनौती बन चुकी है। किसी अपराधी का विरोध नहीं करने पर वह अपने को मजबूत करता चला जाता है और फिर कोई भी उससे बच नहीं पाता। नक्सलियों ने बस्तर के बीहड़ों से बाहर निकलकर शहरी क्षेत्रों में भी पैर पसारना शुरू कर दिया था। ऐसे में यदि डॉ. रमन सिंह की सरकार मुश्तैद नहीं होती तो नक्सली, शहरों में चुनौती देने की स्थिति में आ गए होते। राजधानी रायपुर भी नक्सलियों की आमद से अछूती नहीं रह गई थी। राजधानी के अलावा दुर्ग-भिलाई, राजनांदगांव, धमतरी जैसे इलाकों में नक्सलियों की धरपकड़ यह जाहिर करती है कि उनके मंसूबे क्या रहे होंगे। इसलिए कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह से सहमति जाहिर करने से पहले यह भी विचार करना चाहिए कि नक्सलवाद जल्द ही शहरी क्षेत्रों के लिए भी चुनौती साबित होने जा रहा था। जिस बड़े पैमाने पर शहरों से असलहा बरामद हुआ और नक्सलियों के प्रवक्ता के भिलाई में रहने की सूचना मिली, उसका क्या मतलब था?

००००

गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

कौन मैली कर रहा है यह गंगा

एक बार फिर कुछ विघ्नसंतोषी गंगा को मैली करने पर तुल गए हैं। पता नहीं कौन-सा खेल है, पर इस खेल का नतीजा नहीं आना चाहिए, अन्यथा एक सुंदर और पवित्र मंशा को लेकर आगे बढ़ रहा ब्लाग सागर पूरी तरह से गंदा हो जाएगा।
पिछले कई दिनों से लगातार देख और पढ़ रहा हूं। ...और अब न चाहते हुए भी लिखना पड़ रहा है। साथियों, लम्बे प्रयासों के बाद मुझे हिन्दी में ब्लागिंग करने का अवसर मिला और तब सोचा था कि इस बहाने कई लोगों से सम्पर्क करने और अपनी बातों को बहुसंख्य तक पहुंचाने का अवसर मिल पाएगा। मुझे लगता है कि ऐसा औरों ने भी सोचा होगा। इस तरह एक जैसी पवित्र सोच लेकर हजारों लोग आगे बढ़ रहे हैं। पर लगता है कई खरगोशों को कछुओं की रफ्तार कुछ ज्यादा ही नजर आ रही है। उन्हें डर है कि यदि वे कहीं कमजोर पड़े तो कछुए एक बार फिर जीत हासिल कर लेंगे। पंचतंत्र की इस खरगोश और कछुए वाली कहानी से शायद ही कोई भारतीय अपरिचित होगा। पर इसी के साथ मैं अपने साथियों को एक बात और बताना चाहूंगा। एक कथित ब्लागर मित्र (कथित इसलिए कि उसकी गतिविधियों बिलकुल शून्य है, पर अपने सम्पर्कों तक लिंक पहुंचाने में वह चूक नहीं करता, भले ही उसके ब्लाग में सालभर पहले की पोस्ट पड़ी हुई हो।) ने कल ही मुझे बताया कि ब्लागवाणी और चिट्ठाजगत में जाकर वह लेखों को बिना पढ़े ही टिप्पणी कर रहा है। ...और यह भी कि कई बड़े चिट्ठाकारों पर उसने नकारात्मक और बकवास किस्म की टिप्पणियां की है। (निवेदन है कि इस कथित ब्लागर का नाम न पूछें।) बहरहाल, मैंने इन सज्जन को अपनी और अन्य ब्लागर साथियों की भावनाओं से अवगत करा दिया है और उससे वायदा भी लिया है कि आइंदा वह इस तरह की हरकत नहीं करेगा।
साथियों, ब्लाग जगत में कई ऐसे लोग भी सक्रिय है, जिनका लिखने और पढऩे से कहीं कोई वास्ता नहीं है। ऐसे लोग महज मजा लेने के लिए आते हैं और मजा लेने के लिए उट-पटांग टिप्पणियां और नापसंदगी का चटखा लगा जाते हैं। मैं यह नहीं कहता कि सिर्फ ऐसे ही लोग ब्लाग-सागर को गंदा कर रहे हैं। संभव है कि सक्रिय किस्म के लोग भी ऐसा कर रहे हों, जैसा कि मैंने खरगोश और कछुए की कहानी के माध्यम से बताने का प्रयास किया है। इस बारे में ज्यादा कुछ इसलिए भी नहीं कहूंगा कि मुझे किसी पचड़े में नहीं पडऩा है। मैं एक शुद्ध और बेहतर सोच लेकर आगे बढऩा चाहता हूं। किसी की बुराई कर या व्यर्थ की बातें लिखकर अपने चिट्ठों में टिप्पणियों की संख्या बढ़ाने पर मेरा विश्वास नहीं है। जो लोग ऐसा कर रहे हैं, वे करते हैं।

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

खबरें इधर-उधर की

सफेदा लगाकर बदल डाला

रायगढ़। दिवंगत व्यक्ति के नाम पर तहसीलदार न्यायालय से जारी काम रोको आदेश पर सफेदा लगाकर मृतक के पुत्र के नाम पर आदेश तामिल करा लेने का अजीबो-गरीब मामला सामने आया है। जबकि आदेश तामिली के एक दिन बाद तहसीलदार न्यायालय में संशोधन आदेश हेतु आवेदन लगाया गया।
एक राजस्व प्रकरण में तहसीलदार एस.पी.वैद्य के न्यायालय में रा.प्र.क्र. 522/अ-70/09-10 में काम रोको आदेश पारित किया गया। जिसमें दादू बिल्डर्स के  अशोक अग्रवाल के नाम से स्वयं के लेटरपेड में दो रूपये की टिकट लगाकर वैधानिक प्रक्रिया पूर्ण किये बिना ही शीशधर बाजपेयी (मृत व्यक्ति) के विरूद्ध आवेदन पत्र प्रस्तुत कर यह आरोप लगाया गया कि उक्त मृत व्यक्ति द्वारा दादू बिल्डर्स का मार्ग अवरूद्ध कर भूमि पर अतिक्रमण किया जा रहा है। इस तरह निजी व्यक्ति द्वारा निजी लेटरहेड पर लगाए गये आवेदन पर तहसीलदार द्वारा बिना किसी जानकारी लिये अथवा संबंधित अन्य दस्तावेजों का अवलोकन किये ही आवेदन पर काम रोको आदेश जारी कर दिया गया। आदेश की प्रति लेकर दादू बिल्डर्स के कर्मचारी जे.एन. भारद्वाज के साथ तहसील कोर्ट के माल जमादार जब मृतक शीशधर बाजपेयी के पते पर पहुंचे तो उनके पुत्र द्वारा नोटिस को नहीं लेते हुए बताया गया कि यह नोटिस मृत व्यक्ति के नाम पर है जिस पर वापस चले गये किन्तु आधे घंटे बाद उक्त दोनो व्यक्ति एक साथ पुन: वापस आये और शीशधर बाजपेयी वाली नोटिस में शीशधर के नाम के ऊपर सफेदा लगाकर उसमें प्रमोद बाजपेयी लिखकर लाये एवं प्रमोद बाजपेयी को काम रोको आदेश की प्रति थमा दी। जिसमें सफेदा लगे स्थान पर किसी भी अधिकारी के लघु हस्ताक्षर नहीं थे। दस्तावेजों में हेराफेरी एवं कूटरचित दस्तावेजों के होने की शंका के कारण प्रमोद बाजपेयी द्वारा 3 अप्रैल को उक्त प्रकरण के समस्त दस्तावेजों की सत्यापित प्रति प्राप्त की गई जिससे जानकारी हुई कि दादू बिल्डर्स के अशोक अग्रवाल के नाम से पार्टनर के नाम से पार्टनर के रूप में उसके कर्मचारी द्वारा स्वयं उपस्थित होकर आवेदन प्रस्तुत किया गया कि शीशधर बाजपेयी द्वारा उनके आवासीय प्लाट का व्यक्तिगत रास्ता रोककर अतिक्रमण किया जा रहा है। जिस पर तहसीलदार द्वारा काम रोको आदेश जारी कर दिया गया। इसी क्रम में दादू बिल्डर्स के कर्मचारी द्वारा 1 अप्रैल को संशोधन आवेदन प्रस्तुत किया गया जिसमें शीशधर बाजपेयी के  नाम के स्थान पर प्रमोद बाजपेयी के नाम पर न्यायालय द्वारा काम रोको आदेश जारी करने का आवेदन लगाया गया किन्तु प्रशासनिक मिली भगत का प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि तहसीलदार के न्यायालय में संशोधन आवेदन 1 अप्रैल को पेश किया गया किन्तु तहसीलदार द्वारा आवेदन लगने के एक दिन पूर्व ही अर्थात 30 मार्च को अपना काम रोको आदेश जारी कर उसकी तामिली भी करवा  दी गई। रायगढ़ तहसीलदार के रूप में जब से श्री वैद्य ने पदभार संभाला है, ऐसे विसंगतिपूर्ण आदेशों की शिकायतें आम हो गई है। जिलाधीश ने यदि शीघ्र ऐसे प्रकरणों पर ध्यान न दिया तो रायगढ़ में एक बड़े जमीन घोटाले की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता।

०००

अस्पताल में पानी के लिए हाहाकार

रायगढ़। शहर में पड़ रही प्रचंड गर्मी के कारण जहां शहर के कई मोहल्लों में पानी की किल्लत हो गई है वहीं जिला चिकित्सालय के अधिकांश बोर खराब हो जाने के कारण यहां पानी के लिए हाहाकार मचा हुआ है। जिला चिकित्सालय परिसर में कुल 6 बोर है जिनमें से मात्र दो बोर इस समय चल रहा है इनमें से एक नया बोर जो नये ओपीडी के पास जेएसपीएल द्वारा खुदवाया गया था उसका कनेक्शन नये ओपीडी से जुड़ा होने के कारण शेष वार्डों के लोगों को इसका लाभ नहीं मिल पा रहा है इसके अलावा आईसीयू के सामने स्थित बोर चल रहा है जबकि रेडक्रास के सामने, उद्यान के भीतर तथा रेडक्रास दवा दुकान के सामने सहित बाकि बोर बेकार पड़े है जिसके कारण मरीजों के परिजनों को दिन भर बोतल या बाल्टी लेकर पानी के लिए भटकना पड़ता है। आलम यह है कि निस्तारी के लिए पानी तो दूर यहां आने वाले लोग पीने के बुंद-बुंद पानी के लिए तरस रहे है। कुछ मरीजों के परिजनों ने बताया कि दो दिन पहले यहां निगम द्वारा 4 टेंकर पानी आया था इसके बावजूद पानी लोगों को पर्याप्त मात्रा में नहीं मिला। वहीं अब तो टैंकर से पानी भी नहीं आ रहा है इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि परिसर में किस कदर पानी की किल्लत है। अस्पताल प्रबंधन से इस संबंध में चर्चा करने पर उनका स्पष्ट जवाब होता है कि जल आपूर्ति तथा बोर का रख-रखाव का जिला पीएचई को सौंपा गया है। वहीं पीएचई द्वारा इन बिगड़े हुए बोर पंपों को सुधारने के लिए कोई त्वरित कार्रवाई न करने से यह समस्या विकराल रूप धार करने लगी है। यदि समय रहते इस समस्या के निदान की ओर ध्यान नहीं दिया गया तो भविष्य में अस्पताल परिसर के भीतर ही पानी के लिए किसी की जान भी जा सकती है इसलिए जिला प्रशासन तथा कलेक्टर रायगढ़ को अस्पताल की इस समस्या को गंभीरता से लेते हुए त्वरित कार्रवाई के लिए निर्देशित करने की जरूरत है ताकि अस्पताल के विभिन्न वार्डों में भर्ती मरीज तथा उनके परिजनों को राहत मिल सके।

000

गर्मी से उबल रहे मरीज

कवर्धा। स्थानीय जिला चिकित्सालय में मरीजों का हाल इस भीषण गर्मी में बंद से बदत्तर है आवश्यक सुविधाओं की कभी से जुझ रहे मरीजों को अपने बीमार स्वास्थ्य के साथ-साथ इस मौसम में भी दो चार होना पड़ रहा है। गर्मी शुरू होने के पहले अस्पताल प्रबंधन द्वारा बढ़ चढ़कर किये जाते है हम मरीजों को इस गर्मी में विशेष ख्याल रखेंगे उन्हें ज्यादा से ज्यादा सुविधाएं उपलब्ध कराएंगे लेकिन सारे दाने खोखले ही हुए क्योंकि मरीजों को मिलने वाली सुविधाएं अपर्याप्त है मरीजों के साथ परिजनों को भी खासी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है।
अप्रैल माह में बढ़ रही भीषण गर्मी से जहां लोग परेशान हो रहे है वहीं अस्पताल में भर्ती मरीज भी हलाकान हो रहे है। गर्म हवाओं के बीच मरीजों को राहत नहीं मिल पा रही है। पंखो व कूलरों की हवा भी बेअसर होने लगी है अस्पताल में कूलर लगभग 8 से 10 है तो बड़े कमरे में लगे हुए है तथा पंखा 35 40 तक है बावजूद इसके तमाम संसाधन मरीजों के लिए अपर्याप्त बने हुए है। अस्पताल में भर्ती मरीजों की बड़ी मुश्किल से शीतल जल उपलब्ध हो रहा है। गर्मी के मौसम में ठंडे पानी के लिए मरीजों एवं उनके परिजनों को इधर उधर भटकना पड़ रहा है। मरीजों को ठंडे पानी उपलब्ध कराने के लिए अस्पताल परिसर में चार पांच मटके रखे गए है लेकिन उसमें भी कभी पानी भरा रहता है तो कभी खाली रहता है। पानी देने वाले भी कोई नहीं रहते। अलग-अलग वार्डो में लगे कूलरों की भी स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं है 8 से 10 कूलरों में से 5 -6 कूलर तो ऐसे है जिसमें ठंडी हवा तो नहीं गर्म हवा जरूर मिलती है। बाकी बचे कुलरों में समय सयम पर पानी डालने के लिए यहां कोई नही है। पानी खत्म हो जाने के बाद यही कूलर गर्म हवा के साथ आग उगलना शुरू कर देते है। वार्डो में लगे पंखे सिर्फ देखने भर की है इन पंखो की रफतार इतनी कम है कि इससमे मरीजों को थोड़ी बहूत भी राहत न मिल पा रही है कहले को तो सभी पंखे चालू हालत में है लेकिन हकीकत यही है कि इन पंखो व कुलरों से मरीजों को कुछ ज्यादा लाभ नहीं मिल रहा है। प्रसुति वार्ड में जच्चा बच्चा के लिए इस गर्मी में खास ध्यान देने की जरूरत है लेकिन अस्पताल प्रबंधन द्वारा किए गए उपाए नकामी है महिला वार्ड की स्थिति भी ज्यादा अच्छी नही है। पूरे 24 घंटे मरीजों को अपनी बिमारी के साथ-साथ गर्मी में जूझते असानी से देखा जा सकता है।

000

महिला वेशभूषा में संदिग्ध युवक गिरफ्तार

कांकेर।  महिला का वेशधारण कर नगर के एक मोहल्ले में चोरी की नियत से रात 2.30 बजे घुम रहे कोलकाता के श्यामली बोस(36)को पुलिस के गश्ती दल ने नागरिकों के सहयोग से दबोच लिया। मिली जानकारी के अनुसार यह व्यक्ति 2.30 बजे एकता नगर में अकेले घुमते चोरी करने महिला वेश में टोह ले रहा था। गश्ती दल को देख वह भागने लगा तब वार्ड के लोगों के सहयोग से उसे दबोच लिया।

०००

बच्चे भी लोगों की प्यास बुझा रहे

धमतरी। इतवारी बाजार स्थित माँ तुलजा भवानी मंदिर के सामने भीषड़ गर्मी में राहगिरों के लिए शीतल पेयजल उपलब्ध कराया जा रहा है। इस प्याऊ में आसपास के काफी लोगों को काफी राहत मिल रही है वहीं लोगों को पानी देकर प्यास बुझाने में छोटे-छोटे बच्चें खूब रूचि ले रहे है। आज सुबह इन बच्चों के हौसला अफजाई के लिए भाजपा जिलाध्यक्ष महेन्द्र पंडित प्याऊ घर पहुंच कर उन्हें स्नेह देते हुए अच्छे कार्य करने की बधाई दी।

०००

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

खबरें इधर-उधर की

सरकारी एम्बुलेंस में बारात
कांकेर। सरकारी एम्बुलेंस में बाराती ले जाने का मामला प्रकाश में आया है। जिसकी शिकायत करने चारामा वाहन चालक संघ आज स्वास्थ्य अधिकारी को किये जाने के बाद कांकेर में शिकायत दर्ज कराई।
वाहन चालक संघ के सदस्यों ने अपनी शिकायत में बताया कि सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र चारामा की नई सुमो(एम्बुलेन्स)के चालक लक्ष्मण सलाम ने 24 अप्रेल को ग्राम रतेसरा से बारातियो को कोडेगांव जिला धमतरी ले जाया गया है। जिस पर वाहन चालक संघ के अध्यक्ष शंकरपुरी गोस्वामी ने आपत्ति दर्ज कराते हुए कहा कि एम्बुलेंस वाहन यदि बाराती ढोते रहेंगे तो बीमार मरीजों का क्या होगा? साथ ही बाकी हम गरीब वाहन चालकों का क्या होगा? बारात ले जाते समय जानकारी मिलने पर वाहन चालक संघ द्वारा चालक लक्ष्मण को मना करने पर उसके द्वारा अपशब्द कहा गया तथा जहां शिकायत करना है कर लो कह कर धमकी देते हुउए एम्बुलेंस में बाराती बिठाकर रवाना हो गया। वाहन चालक संघ ने चालक लक्ष्मण सलाम पर उचित कार्यवाही किए जाने की मांग स्वास्थ्य विभाग से की है।

000

क्रिकेट बैट से पीट-पीटकर पत्नी की हत्या

रायगढ़। शराब के नशे में पत्नी से विवाद होने पर एक व्यक्ति ने क्रिकेट बैट से पीट-पीटकर उसे मौत के घाट उतार डाला। घटना  सुबह मिट्ठुमुड़ा सारथी मोहल्ले में घटित हुई। पुलिस ने आरोपी को गिरफ्तार कर लिया है।
जानकारी के अनुसार जूट मिल चौकी अंतर्गत मिट्ठुमुड़ा सारथी मोहल्ला निवासी मंगल सारथी उम्र 32 वर्ष का  सुबह करीब 11 बजे अपनी पत्नी गीता बाई से विवाद हो गया। बताया जाता है कि मंगल आदतन शराबी है और जो कुछ कमाता है पीने में उड़ा देता है जिसके कारण गीता बाई गली-मोहल्ले घुम-घुमकर कबाड़ का सामान इकट्ठा कर उसे बेचकर अपने चार बच्चों सहित परिवार का भरण पोषण करती थी। पिछले दिनों मंगल सारथी की बहन के घर में मेहमान आने पर गीता बाई और मंगल में कमाकर लाने को लेकर विवाद हुआ था। इसी क्रम में  सुबह जब मंगल शराब पीकर घर लौटा तो गीता बाई अपने पति को खरी-खोटी सुनाने लगी जिस बात को लेकर पति-पत्नी में विवाद शुरू हो गया और विवाद बढऩे पर आक्रोशित होकर मंगल घर में रखे क्रिकेट बैट से गीता के सिर पर ताबड़तोड़ प्राणघातक हमला कर दिया जिससे मौके पर ही गीता बाई की मौत हो गई। घटना की जानकारी मिलने पर तत्काल पुलिस मौके पर पहुंची और मर्ग पंचनामा कार्रवाई पश्चात शव को पोस्टमार्टम के लिए भिजवाते हुए भादवि की धारा 302 के तहत आरोपी पति को गिरफ्तार कर लिया है।

०००

घायल को भी नहीं बख्शा

रायपुर। शहर के हृदय स्थल जयस्तंभ चौक में घायल अवस्था में पड़े एक व्यक्ति के जेब से किसी ने 6 हजार रुपए नगद सहित मोबाइल फोन पार कर दिया।
पुलिस सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार कोटा निवासी अब्दुल रहीम का पुत्र अब्दुल शकील 30 वर्ष टिफिन सेंटर चलाता है। रोज की तरह वह कल रात भी अपनी मोटर साइकिल से रात करीब 10 बजे टिफिन बांटने निकला था। लेकिन रात भर वह घर नहीं लौटा। सुबह परिजनों को खबर मिली कि अब्दुल शकील सड़क हादसे में घायल होकर अम्बेडकर अस्पताल में भर्ती है। घबराए परिजन जब अस्पताल पहुंचे तो पता चला कि गोलबाजार की पेट्रोलिंग पार्टी ने उसे जयस्तंभ चौक में घायल अवस्था में पड़े देखा और अस्पताल में भर्ती कराया। परिजनों ने बताया कि शकील के सिर व पिछले हिस्से में चोट के निशान हैं जिससे लगता है कि किसी ने उस पर हमला किया है। परिजनों ने यह भी आरोप लगाया है कि शकील जब घर से निकला था तो उसकी जेब में 6 हजार रुपए नगद सहित मोबाइल फोन भी था, जो उसकी जेब से गायब हो चुका है। समाचार लिखे जाने तक घायल शकील को होश नहीं आया था, इधर पुलिस ने उसके होश में आने के बाद बयान दर्ज करने की बात कही है।

०००

नहीं बदली तांगेवालों की जिंदगी

दुर्ग। निरंतर बदलते समय के साथ शहर की प्रगति के भी कई पन्ने बदल गए। किंतु दुर्ग शहर के आधा सैकड़ा के आसपास टांगेवालों का जीवन आज भी उसी ढर्रे पर चल रहा है। बदलाव के नाम पर पारंपरिक पेशे से विमुख होती नई पीढ़ी, सतत सिमटता जा रहा कमाई का जरिया और तांगे गाड़ी के लकड़ी के पहिये की जगह मोटर गाडिय़ों के पहियों का इस्तेमाल को ही इस कुनबे की उपलब्धि कहा जा सकता है। सुरसा की तरह बढ़ती महंगाई के इस युग में टांगे वाले किसी तरह अपने परिवार का पेंट पाल रहे हैँ। मोटर गाड़ी के  जमाने में तांगे वालों की जीविका बचाए रखने पिछले दिनों जिला कलेक्टर ठाकुर रामसिंह ने इंदिरा मार्केट की कुछ प्रमुख सड़कों को टांगेवालों के लिए सुरक्षित घोषित किया है।

००

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

शहरों की ओर नक्सली

- प्रभात अग्रवाल -
बस्तर में बल के बढ़ते दबाव के चलते नक्सली शहरों की ओर पलायन करने लगे हैं। इस तरह की मिल रही गोपनीय सूचनाओं के बाद नक्सल प्रभावित जिलों के आसपास के इलाकों को सतर्क कर दिया गया है। सीमाओं पर चौकसी बरतने को भी कहा गया है। बस्तर के ताड़मेटला घटनाक्रम के बाद एक ओर जहां देशभर में लोगों ने गम्भीर प्रतिक्रिया जताई है तो दूसरी ओर राज्य और केन्द्र सरकार भी अब और ज्यादा सख्ती के मूड़ में है। हालातों को भांपकर नक्सलियों ने भी पैतरा बदल दिया है और अब वे शहरों की ओर रूख कर रहे हैं।
नक्सलियों द्वारा बस्तर में 76 जवानों की नृशंस हत्या के बाद सीआरपीएफ के जवान बीहड़ों में जाने से परहेज कर रहे हैं। हाल ही में यह खबर भी आई थी कि इन जवानों को खाने और साफ पानी की किल्लत से जूझना पड़ रहा है। मौसम की मार और मच्छरों की वजह से जवान पहले ही परेशान रहे हैं, वहीं नक्सलियों के हमलों की आशंका भी बराबर बनी रहती है। इस तरह की तमाम दिक्कतों के बाद अब केन्द्र और राज्य की सरकार मिलकर नए सिरे से योजनाएं बनाने और उसे मूर्त रूप देने में जुट गए हैं। लेकिन एक बात पूरी तरह से साफ हो गई है कि नक्सलियों के खिलाफ सेना और वायुसेना का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा। दरअसल, इसके पीछे अपने कई कारण हैं। यदि सेना को बस्तर में तैनात किया जाता है तो पूरा बस्तर सैन्य शासन के दायरे में आ जाएगा और इस पूरे संभाग में सेना की मर्जी के बिना कोई काम नहीं हो पाएगा। इससे बस्तर के विकास और वहां के जनजीवन पर भी असर पडऩे की संभावना है, वहीं सेना के कोप का शिकार उन आदिवासियों को होना पड़ेगा, जो नक्सलियों के भय की वजह से जाने-अनजाने उन्हें प्रश्रय या किसी न किसी तरह का सहयोग करते रहे हैं। इसलिए अब नए सिरे से नई रणनीति के तहत फूंक-फूंककर कदम धरने की जरूरत है।
इधर, ताड़मेटला घटना के बाद जवानों की हौसला अफजाई के लिए डीजीपी विश्वरंजन ने पत्र लिखा है। अपने पत्र में उन्होंने ताड़मेटला घटना से सबक लेने और भविष्य में सर्चिंग अभियान के दौरान सावधानी बरतने की बात कही है। एक ओर जहां केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम् तीन साल के भीतर नक्सलियों के खात्मे की बात कह रहे हैं तो मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह दो साल में छत्तीसगढ़ को नक्सलियों से मुक्त करने का दावा कर रहे हैं। इस तरह की बातों और दावों का जवाब नक्सली अपने प्रचलित तरीके से ही दे रहे हैं। ताड़मेटला घटना की जांच करने पहुंचे केन्द्रीय दल पर नक्सलियों ने गोलियां बरसाईं तो बस्तर के डिलमिली में जिस तरह उन्होंने रेल पटरियां उखाड़कर मालगाड़ी के 13 डिब्बे उतार दिए, उससे रेल यातायात बुरी तरह प्रभावित हुआ और करोड़ों रूपयों का नुकसान भी हुआ। वास्तव में, जब-जब नक्सलियों के खात्मे जैसे बयान आते हैं, वामपंथी उग्रवादी कोई न कोई बड़ी घटना को अंजाम देते हैं। इसलिए राजनेताओं को किसी तरह का बयान देने से पूर्व सावधानी बरतना भी जरूरी है। मालगाड़ी की पटरियां उतारकर नक्सलियों ने यह स्पष्ट संकेत दिया है कि उनकी गतिविधियों पर विराम नहीं लगा है। ....और इन सबके बाद अब नक्सलियों के शहरी क्षेत्रों में कूच करने की खबरें भयभीत करने वाली हैं। कुछ अरसा पहले राजधानी रायपुर और भिलाई क्षेत्र से कई बड़े नक्सली समर्थकों को असलहे के साथ गिरफ्तार किया गया। तब पहली बार यह पता चला कि नक्सली सिर्फ बीहड़ों ही नहीं, शहरों में भी काम कर रहे हैं।
फिलहाल बस्तर के लिए एक नई खबर सामने आई है कि वहां जनगणना का कार्य नहीं हो पाएगा। नक्सली आतंक के चलते यह संभव भी नहीं दिख रहा है। इसलिए प्रशासन ने वहां जनगणना के लिए कोई नया उपाय सुझाने संबंधी पत्र लिखा है। लेकिन बस्तर जैसे जटिल और विस्तृत क्षेत्र में कोई नया उपाय काम करेगा, इस बात की संभावना कम ही है। दरअसल, नक्सलियों के भय से मतगणना कर्मी गांवों में जाना नहीं चाहते। नतीजतन बस्तर के सभी 4 जिलों में यहब कार्य पहले से ही ठंड़ा पड़ा हुआ है। इधर, कांग्रेस ने सुरक्षा बलों में पारस्परिक तालमेल के लिए राजभवन में नोडल अफसर की नियुक्ति का सुझाव दिया है। राज्यपाल से चर्चा करने पहुंचे कांग्रेसियों का कहना था कि प्रत्येक नक्सली वारदात के बाद सरकार रणनीतिक चूक का रटा-रटाया जवाब देती है और नक्सलियों को मुंहतोड़ जवाब देने की बात कही जाती है, लेकिन आज तक ऐसा हो नहीं पाया है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष धनेन्द साहू ने कहा कि बस्तर में जनजीवन सामान्य नहीं है। आदिवासियों की खेती-बाड़ी चौपट हो गई है। हाट-बाजार बंद पड़े हैं। आदिवासी वनोपज नहीं बेच पा रहे हैं। रोजगार गारंटी योजना समेत तमाम सरकारी कामकाज बंद पड़े हैं। नेता प्रतिपक्ष रविन्द्र चौबे का कहना था कि नक्सल समस्या पर प्राथमिकता के आधार पर ध्यान देने की जरूरत है।
                                             नोट : लेखक राष्ट्रीय साप्ताहिक विदर्भ चंडिका के छत्तीसगढ़ ब्यूरो प्रमुख हैं।

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

शह से पहले मिली मात

बैस का खेला पिछड़ा वर्ग कार्ड, भुनाया रमन ने

- नरेश सोनी -

छत्तीसगढ़ में निगम, मंडल और आयोगों में नियुक्तियों का सिलसिला जल्द ही शुरू होने जा रहा है। इसके लिए कई नाम तय कर लिए गए हैं जबकि कई अन्य नामों पर अंतिम मुहर अभी लगनी है। राज्य में आदिवासी समाज की लॉबिंग के बाद जिस तरह से सांसद रमेश बैस ने पिछड़ा वर्ग की वकालत करते हुए प्रदेश भाजपाध्यक्ष पद के लिए दावा ठोका, उसके दो दिनों बाद ही पिछड़ा वर्ग के एक विधायक का नाम मंत्री पद के लिए तय कर लिया गया। रमन सरकार के तेरहवें मंत्री दुर्ग जिले के नवागढ़ से विधायक दयालदास बघेल होंगे। दरअसल, बघेल के जरिए मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने न केवल पिछड़ा वर्ग को साधने की कोशिश की है, बल्कि बैस की लगाई आग पर भी काबू पाने की चेष्टा की है।
उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ को आदिवासी राज्य बताए जाने पर सांसद रमेश बैस ने ऐतराज किया था। उनका कहना था कि पिछड़ा वर्ग की राज्य में तादाद 52 फीसदी है जबकि आदिवासी महज 12 फीसदी ही हैं। ऐसे में यह राज्य आदिवासी कैसे हो गया? शायद इसीलिए बैस ने भाजपा कोरग्रुप की हुई बैठक में प्रदेश अध्यक्ष के लिए अपना दावा ठोंक दिया। बैस, छत्तीसगढ़ भाजपा के अध्यक्ष बन पाते हैं, या नहीं यह दीगर बात है - पर बैस के के शह देने और खुद ही मात खाने के मसले पर काफी कुछ कहा जा सकता है। एक तीर से कई शिकार करने में माहिर सांसद रमेश बैस की निगाहें लम्बे समय से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रही है, लेकिन यह उनका दुर्भाग्य है कि वे कुछ कर नहीं पाए। कई बार लॉबिंग की खबरें भी आई पर कोई नतीजा नहीं निकल पाया। मजेदार बात यह है कि कोरग्रुप की बैठक होते तक किसी को मालूम भी नहीं था कि बैस ऐसा कोई दावा भी कर सकते हैं। उनके दावों ने दरअसल, कोरग्रुप के सदस्यों  को चकित कर दिया। इस बैठक से पहले तक आदिवासी नेता व सांसद मुरालीलाल सिंह की दावेदारी को पक्का माना जा रहा था और इसी कोरग्रुप की बैठक में उनके नाम पर अंतिम मुहर भी लगनी थी। किन्तु ऐन वक्त पर रमेश बैस द्वारा स्वयं को अध्यक्ष पद के लिए प्रोजेक्ट किए जाने और पिछड़ा वर्ग की वकालत करने से छत्तीसगढ़ की राजनीति में एक बार फिर उठापटक के संकेत मिलने लगे। गौरतलब है कि राज्य के आदिवासी नेता समय-समय पर लामबंद होकर सत्ता के शीर्ष पदों पर दावेदारी करते रहे हैं। राजधानी रायपुर में कुछ समय पूर्व राज्यभर के आदिवासियों ने रैली निकालकर ताकत दिखाई थी। इस रैली में सभी दलों के आदिवासी नेता शामिल हुए और मुख्यमंत्री और राज्यपाल जैसे पदों पर दावा जताया गया था। एक बार फिर देशभर के आदिवासी लामबंद होने जा रहे हैं। यह पिछड़ों के लिए खतरे की घंटी भी है क्योंकि इस वर्ग के साथ सत्ता और संगठन में कभी न्याय नहीं हुआ। इसलिए इस वर्ग के नाम पर ही सही, बैस ने अपना कार्ड तो खेल दिया। पर मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह भी कच्चे खिलाड़ी नहीं हैं। बैस के इरादों को भांपकर उन्होंने करीब सवा सालों से खाली पड़े तेरहवें मंत्री के पद के लिए दयालदास बघेल के  नाम पर मुहर लगा दी। इससे पहले कि पिछड़ा वर्ग की कोई नई मुहिम शुरू हो पाती, राजनीति के माहिर खिलाड़ी की तरह मुख्यमंत्री डॉ. सिंह ने पिछड़ा वर्ग और वह भी बैस की ही बिरादरी के नेता को आगे बढ़ाकर खुद को मिलने वाली शह से पहले ही सामने वाले को मात दे दी।
राज्य में भाजपा को बहुमत मिलने के बाद जिन लोगों के नाम मुख्यमंत्री पद के लिए प्रमुखता से लिए जा रहे थे, उनमें एक रमेश बैस भी थे। लेकिन क्योंकि डॉ. रमन सिंह ने केन्द्रीय मंत्री का पद छोड़कर प्रदेश भाजपाध्यक्ष की कमान संभाली थी, इसलिए पार्टी की नजरों में रमन सिंह का वजन ज्यादा था। इससे पहले अजीत जोगी ने आदिवासी कार्ड खेला था और इसी कार्ड के दम पर वे मुख्यमंत्री बने। स्वयं को आदिवासी बताने और आदिवासी वर्ग के प्रति उनके लगाव ने इस वर्ग को छत्तीसगढ़ में काफी सशक्त बना दिया। नतीजतन डॉ. रमन सिंह के मुख्यमंत्री बनने के बाद आदिवासी वर्ग को जरूरत से ज्यादा महत्व दिया गया, ताकि पूरा आदिवासी समुदाय कांग्रेस की बपौती बनकर न रह जाए। संगठन की कमान एक आदिवासी को सौंपी गई तो मंत्रिमंडल में भी आदिवासी विधायकों को पर्याप्त जगह मिली। इसके चलते राज्य के पिछड़ा वर्ग के नेता हाशिए पर चले गए। राज्य में आदिवासी वर्ग इसलिए भी सुर्खियों में रहा क्योंकि बस्तर में नक्सलियों की आमद का खामियाजा इन्हीं आदिवासियों ने भोगा। बात सिर्फ इतनी ही नहीं है। भाजपा को राज्य में दोनों बार सत्ता में लाने में आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों की बड़ी भूमिका रही है। यह बात अलग है कि छत्तीसगढ़ से कांग्रेस के इकलौते सांसद चरणदास महंत ने लोकसभा में नक्सलियों से सांठगांठ के मसले पर भाजपा की खूब भद्द पीटी।
पर बैस की मंशा कुछ और ही दिखाई पड़ती है। कहीं न कहीं वे संगठन के जरिए छत्तीसगढ़ की सत्ता के केन्द्र तक पहुंचने की राह तलाश रहे हैं। हालांकि अभी विधानसभा चुनाव को करीब काफी वक्त है पर यदि वे प्रदेश अध्यक्ष बन जाते हैं तो संगठन की ताकत के बल पर आसान राह भी बना सकते हैं। दिल्ली में बैठे कई वरिष्ठ नेता उनका साथ दे रहे हैं। जाहिर है कि वे पिछड़ों के सर्वमान्य नेता बनने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन उनकी इन कोशिशों को रमन ने पलीता लगा दिया है। पिछड़ा वर्ग को प्रतिनिधित्व देकर उन्होंने इस पूरे समाज को तो साधने की कोशिश की ही है, साथ ही बैस को भी एक तरह से ठिकाने लगा दिया है।
००००

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

नहीं फूटे संवेदना के दो बोल

- नरेश सोनी -

यह कांग्रेस किस दिशा में जा रही है? नक्सलियों के खिलाफ संयुक्त अभियान कब का शुरू हो चुका है और इस दौरान बस्तर के दंतेवाड़ा में नक्सलियों ने अब तक का सबसे बड़ा हमला कर 76 लोगों को मौत की नींद सुला लिया, किन्तु कांग्रेस के किसी बड़े नेता के मुंह से संवेदना के दो बोल नहीं फूटे। क्या कांग्रेस नक्सलियों की समर्थक है? जिन आदिवासियों से मिलने के लिए राहुल गांधी खासतौर पर बस्तर पहुंचे थे, उन आदिवासियों का पूरा का पूरा वजूद खतरे में है, लेकिन कलावती की गरीबी का रोना रोने वाले कांग्रेस के इस युवराज का मुंह नक्सलियों के खिलाफ तो नहीं ही खुला, हिंसा का शिकार हुए जवानों के लिए भी बंद रहा। शायद यही कारण है कि भारतीय जनता पार्टी इसे मुद्दा बनाकर कांग्रेस पर हमला बोल रही है।
मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह का बयान इन दिनों सुर्खियों में है। इस बयान में सिंह ने खुलेआम गृहमंत्री पी. चिदंबरम की नक्सल नीति का विरोध किया है और इसकी समीक्षा की वकालत की है। चतुराई भरी राजनीति करने में माहिर दिग्विजय सिंह अपने बयान में चिदम्बरम को विद्वान, प्रतिबद्ध, गम्भीर नेता और अपना पुराना मित्र बताने से भी नहीं चूके। जिस वक्त छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश का अंग था, दिग्विजय मुख्यमंत्री हुआ करते थे। उनके 10 वर्षीय शासनकाल के दौरान नक्सलियों को फलने-फूलने का खूब अवसर मिला। यही वह वक्त था, जब नक्सलियों ने अपनी जड़ें गहरी की और बस्तर के बीहड़ों में समानांतर सरकार चलाने लगे। पृथक राज्य बनने के बाद अजीत जोगी छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बने और उनके तीन वर्षीय शासनकाल में भी नक्सलियों के खिलाफ किसी तरह की कोई कार्यवाही नहीं की गई। जोगी तो नक्सलियों को भटके हुए लोग बताते रहे हैं। उन्होंने नक्सलियों के खिलाफ चलने वाले सलवा जुड़ूम की भी खुलकर आलोचना की। एक ओर जहां तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष और कांग्रेस के ही वरिष्ठ नेता महेन्द्र कर्मा सलवा जुड़ूम का नेतृत्व कर रहे थे तो दूसरी ओर जोगी इस अभियान की खिलाफत कर रहे थे। इस मामले में कांग्रेस के शीर्षस्थ नेताओं ने भी कभी किसी तरह की टिप्पणी नहीं की। हद तो तब हो गई जब दंतेवाड़ा हादसे के वक्त कोंडागांव में ही मौजूद रहे वरिष्ठ नेता मोतीलाल वोरा और वी. नारायण सामी ने संवेदना के दो शब्द कहना भी जरूरी नहीं समझा।
छत्तीसगढ़ में हुए अब तक के सबसे बड़े नक्सली हमले के बाद प्रदेश कांग्रेस ने रमन सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग की थी। लेकिन केन्द्र सरकार ने इस मांग को इस आधार पर खारिज कर दिया था कि नक्सल विरोधी संयुक्त अभियान क्योंकि केन्द्र सरकार की ही पहल पर चल रहा है इसलिए ऐसी मांगों का कोई औचित्य नहीं है। जवानों के नृशंस हत्याकांड के मसले पर सशक्त जनमत तैयार करने की मानसिकता बना रही प्रदेश कांग्रेस को इससे जोर का झटका लगा। बावजूद इसके उसने प्रदेश स्तर पर सरकार को घेरने की रणनीति बनाई। इसके तहत आंदोलन का बिगूल भी फूंक दिया गया। प्रदेश कांग्रेस की मंशा पूरे राज्य में जबरदस्त आंदोलन करने की थी, लेकिन एक बार फिर उसे ठंडा कर दिया गया है। कांग्रेस हाईकमान का रूख इस पूरे मामले में प्रदेश की भाजपाई सरकार के पक्ष में नजर आता है। यह बात छत्तीसगढ़ के कांग्रेसी हजम नहीं कर पा रहे हैं। उन्हें यकीन नहीं हो पा रहा है कि उनकी अपनी केन्द्र सरकार आखिर प्रदेश की भाजपाई सरकार को बचा क्यों रही है, जबकि वर्तमान में राष्ट्रपति शासन के लिए माहौल बेहद अनुकूल हैं।
०००

सोमवार, 12 अप्रैल 2010

सरकार को कौन बर्खास्त करे

- नरेश सोनी -


छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस ने सोमवार से राज्य की डॉ. रमन सिंह सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। इससे पहले उसने अपनी ही पार्टी की अगुवाई वाली केन्द्र सरकार से मांग की थी कि इस सरकार को बर्खास्त कर दिया जाए। हालांकि केन्द्र सरकार ने इस मांग को सिरे से इस आधार पर खारिज कर दिया था कि नक्सल विरोधी अभियान केन्द्र की अगुवाई में ही चल रहा है। बावजूद इसके यदि कांग्रेस ने प्रदेश सरकार को बर्खास्त करने और जनमत तैयार करने के उद्देश्य से अभियान शुरू कर दिया है तो इसे सीधे-सीधे पार्टी हाईकमान के खिलाफ खोला गया मोर्चा कहना अतिशंयोक्तिपूर्ण नहीं होगा।

प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष धनेन्द्र साहू समेत कई कांग्रेसियों ने प्रदेश की डॉ. रमन सिंह सरकार को बर्खास्त करने की मांग की थी। इन कांग्रेसियों का तर्क था कि प्रदेश सरकार लोगों के जान-माल की रक्षा करने में समर्थ नहीं है और यहां कानून व्यवस्था की स्थिति भी ठीक नहीं है। इस आधार पर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू किया जाना चाहिए। लेकिन प्रदेश के कांग्रेसियों की इस मांग को पहले केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम ने और उसके बाद प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने भी ठुकरा दिया। उनका कहना था कि 76 जवानों की नक्सलियों द्वारा की गई नृशंस हत्या के बाद यह मांग इसलिए भी जायज नहीं है कि क्योंकि नक्सलियों के खिलाफ केन्द्र सरकार की ही पहल पर संयुक्त अभियान शुरू हुआ है। दिल्ली से आए इस बयान के बाद प्रदेश अध्यक्ष साहू ने प्रदेशव्यापी अभियान चलाने की बात कही थी। इसी के तहत कांग्रेस का सरकार विरोधी अभियान शुरू हो गया।

दरअसल, छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की जो बुरी हालत हुई है, उससे पीछा छुड़ाना लगातार भारी पड़ता रहा है। लचर संगठन और नाक के ऊपर चढ़ आया गुटबाजी का पानी, पार्टी को डुबाने को आतुर है। राज्य के दिग्गज कांग्रेसी मोतीलाल वोरा, दिल्ली की राजनीति में इतने रम गए हैं कि उन्होंने छत्तीसगढ़ से ही किनारा कर लिया। ऐसे में अजीत जोगी के मुख्यमंत्री बनने के बाद हालात इस कदर बिगड़े कि अब तक नहीं सुधर पाए हैं। तब से लेकर अब तक दो बार विधानसभा और इतनी ही बार लोकसभा के चुनाव हुए, लेकिन कांग्रेस का परफारमेंस बेहद निराशाजनक रहा। हद तो कुछ महीनों पहले सम्पन्न हुए त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में हो गई, जहां शहरियों की पार्टी कहलाने वाली भाजपा ने अभूतपूर्व प्रदर्शन करते हुए कांग्रेस को पीछे ढकेल दिया। वास्तव में, प्रदेश कांग्रेस के साथ एक विडंबना है कि उसके अध्यक्ष तो लगातार बदलते रहे, लेकिन इन अध्यक्षों को मनमाफिक कार्यकारिणी बनाने की छूट नहीं दी गई। प्रदेश कांग्रेस में अब भी बरसों पुरानी कार्यकारिणी काम कर रही है। अब जबकि संगठन चुनाव की गतिविधियां चल रही है, इस बात की संभावना मजबूत हुई है कि संगठनात्मक चुनाव के बाद पार्टी का कुछ भला हो पाएगा, लेकिन यह तब होगा, जब एनएसयूआई या वर्तमान में युवक कांग्रेस की तरह गुटबाजी न हो। फिलहाल, संगठन पर कब्जे के लिए जिस तरह की पैतरेबाजी चल रही है, वह भी कम नुकसानदायक नहीं होगी।

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

सैन्य कार्यवाही से परहेज़ क्यों?

- नरेश सोनी -

बस्तर में कत्लेआम के बाद भी केन्द्र सरकार नक्सलियों के खिलाफ सैन्य कार्यवाही से परहेज कर रही है, जबकि वहां तैनात जवानों को यह भलीभांति मालूम है कि नक्सलियों के ठिकाने कहां है। यदि इन ठिकानों को नेस्तनाबूत करने वायुसेना की मदद ली जाए तो जाहिर तौर पर न केवल नक्सलियों का सफाया होगा, बल्कि उन करोड़ों रूपयों की बचत भी हो पाएगी, जो जवानों और आपरेशन को अंजाम देने के लिए व्यय किए जा रहे हैं। केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम इस अभियान को तीन साल चलाने के मूड़ में लगते हैं, जब नक्सलियों का सफाया इससे पहले हो सकता है तो फिर लम्बा-चौड़ा खर्च करने और जवानों की जान जोखिम में डालने की जरूरत क्या है? वास्तव में केन्द्र और राज्य की सरकारों में नक्सलियों के सफाए का माद्दा नजर नहीं आ रहा है। सवाल यह है कि जब बिना जवानों की जान गँवाए नक्सलियों का वायुसेना की मदद से ही सफाया हो सकता है तो फिर विलम्ब और इंतजार किसलिए?

दरअसल, विश्व बिरादरी में अपनी साख के फेर में केन्द्र की सरकार देश के भीतर सैन्य कार्यवाही से बचती रही है। जम्मू-कश्मीर में पूर्व प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने जो गलतियां की थी, वही गलतियां अब डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार करने जा रही है। लेकिन विचारणीय प्रश्न यह है कि हजारों लोगों को मौत से बचाना और अरबों रूपयों के संभावित व्यय से बचना ज्यादा जरूरी है या फिर विदेशों में अपनी साख? पं. नेहरू की गलतियों का खामियाजा आज भी जम्मू कश्मीर की अवाम भुगत रही है और अब तक कश्मीर में भारत का सम्पूर्ण शासन स्थापित नहीं हो पाया है। वहां अब भी सैन्य कार्यवाही नहीं की जा रही है। नक्सली जिस तरह से एक बड़े इलाके पर काबिज हो गए हैं, उससे यही लगने लगा है कि कहीं यहां भी वैसे ही हालत निर्मित न हो जाए। बस्तर के भीतरी इलाके आज भी सरकार की पहुंच से दूर है और वहां नक्सलियों की समानांतर सरकार चलती है। वन माफियाओं से लेकर, ट्रांसपोर्टरों, व्यवसायियों और कथित तौर पर नेताओं तक से नक्सली चंदा वसूलते हैं। खबर यह भी है कि नक्सली गांजा आदि की खेती भी करवा रहे हैं। इस पर अंकुश लगाना सरकार के बस में नहीं दिख रहा है, जबकि इसी चंदे आदि की बदौलत नक्सली हथियार और गोलाबारूद खरीद रहे हैं और कत्लेआम कर रहे हैं। नक्सलियों के खिलाफ अभियान शुरू होने से पहले जवानों को तमाम तरह के प्रशिक्षण दिए गए हैं। गोरिल्ला युद्ध से लेकर जंगलवार तक से प्रशिक्षित होने के बाद भी जवानों की जान ऑफत में है। ऐसे में बस्तर समेत उन तमाम राज्यों में सैन्य कार्यवाही जरूरी हो जाती है, जो नक्सलियों से बुरी तरह त्रस्त हैं।

भले ही बस्तर में नक्सलियों के खिलाफ चल रहा अभियान राज्य की भाजपा और केन्द्र की कांग्रेसनीत सरकार का संयुक्त आपरेशन है, लेकिन पिछले कुछ महीनों में जो कुछ निकलकर सामने आता रहा है, वह यह है कि भाजपा इस कोशिश में लगी है कि उसका वोटबैंक प्रभावित न हो तो कांग्रेस एक बार फिर अपने वोटबैंक को सुरक्षित करने की जुगत में है। और वोटबैंक-वोटबैंक के इस खेल में आतंक का पर्याय बन बैठे नक्सलियों का शिकार हो रहे हैं वे जवान, जिन्हें बिना किसी ठोस योजना के मौत के मुंह में झोंक दिया गया है। अद्र्धसैनिक बलों के साथ ही पुलिस और एसपीओ के जवान जब लगातार मर रहे हैं और नक्सलियों पर नकेल कसने में कोई सफलता नहीं मिल पा रही है तो केन्द्र और राज्य की सरकारें ठोस निर्णय क्यों नहीं ले पा रहे हैं? सेना के उपयोग पर केन्द्र सरकार को आपत्ति क्यों है और क्यों हवाई हमले नहीं हो सकते, जबकि नक्सलियों के ठिकानों की ठीक-ठीक जानकारियां जुटा ली गई है? केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम कह गए हैं कि छत्तीसगढ़ में ग्रीनहंट नाम का कोई आपरेशन नहीं चल रहा है। जबकि राज्य के तमाम आला पुलिस अफसर बार-बार आपरेशन ग्रीनहंट की बातें करते रहे हैं। सवाल यह है कि आखिर बस्तर में चल क्या रहा है? क्यों नहीं नक्सलियों के खिलाफ आरपार की लडाई छेड़ी जाती? हमले में घायल हुए जवानों के मुताबिक, नक्सलियों के कैंप के बारे में तमाम अफसरों के पूरी जानकारी है। किस जगह कितनी संख्या में नक्सलियों का जमावड़ा है और उनके पास कौन-कौन से हथियार है, जब इसकी जानकारियां हैं तो बड़े कदम उठाने में परहेज क्यों किया जाता है? नक्सलियों के ठिकानों पर हवाई हमले होने से जवानों को अकारण जान भी नहीं गंवानी पड़ेगी। इससे वक्त की बर्बादी भी बचेगी और जवानों पर खर्च होने वाला रूपया भी।

प्रत्येक नक्सली घटना का जिम्मा खुफिया तंत्र और रणनीतिक चूक पर मढ़ दिया जाता है। आखिर यह क्यों नहीं देखा जाता कि जंगलों में नक्सलियों का राज है और वहां जंगल का ही कानून चलता है कि जो हमारे साथ नहीं है, व हमारा दुश्मन है। अपने बेहतर नेटवर्क के जरिए नक्सली पुलिस के मुखबिरों को चुन-चुन और सरेआम मारते हैं। ऐसे में कहां का खुफिया तंत्र और कैसे मुखबिर?

००००

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

सबसे बड़ा हमला, 70 जवान शहीद


देश के इतिहास का सबसे बड़ा हमला करते हुए नक्सलियों ने आज छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में 70 से ज्यादा जवानों को मौत की नींद दिया। मृतकों में सीआरपीएफ का 1 डिप्टी कमांडेंट भी शामिल है। हमले में 20 से ज्यादा जवानों के गम्भीर रूप से घायल होने की खबर है। जबकि वारदात के बाद से करीब 50 जवान लापता बताए जा रहे हैं। फिलहाल दंतेवाड़ा जिले के 6 अलग-अलग ठिकानों पर सुरक्षा बल और नक्सलियों के बीच मुठभेड़ जारी है। नक्सली हमले की रक्षामंत्री पी. चिदम्बरम और मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने निंदा की है। नक्सल इतिहास की इस सबसे बड़ी वारदात के पश्चात आज ही राजधानी रायपुर में आपात बैठक बुलाई गई। इस बैठक में केन्द्र सरकार के प्रतिनिधियों के अलावा मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह, सीआरपीएफ के प्रतिनिधि और प्रदेश के आला पुलिस अफसरों के साथ ही गृह सचिव, डीजीपी, और मुख्य सचिव शामिल हुए।
सूत्रों के अनुसार आज सुबह चिंतागुफा थाने से पुलिस का संयुक्त बल सर्र्चिंग के लिए चिंतलनार की ओर रवाना हुआ था। ग्राम ताड़मेटला के समीप जंगल में घात लगाए बैठे नक्सलियों ने पुलिस पार्टी पर हमला कर दिया। सूत्रों के अनुसार नक्सली का यह हमला पूरी तरह सुविचारित और योजनाबद्ध था। पुलिस पार्टी कल शाम सर्चिग के लिए रवाना हुई थी जिसे आज सुबह लौटना था। इसीलिए नक्सलियों ने उन पर हमले की पूरी तैयारी कर रखी थी। नक्सली शहीद जवानों के हथियार भी लूटकर ले गए। बताया जाता है कि चिंतननार के ताड़केटला में नक्सलियों ने पहले घात लगाकर हमला किया। इस हमले में घायल हुए जवानों को लेने जब सीआरपीएफ के जवान एंटी लैंडमाइन व्हीकल से ताड़केटला जा रहे थे, इसी दौरान नक्सलियों ने दूसरा हमला बोलते हुए एंटी लैंडमाइन वाहन को उड़ा दिया। बताया जाता है कि मुठभेड़ में नक्सलियों से जूझ रहे बल को मदद देने चिंतलनार से अतिरिक्त पुलिस बल एंटी माईंस व्हीकल से रवाना किया गया था। यह बल लगभग दो किलोमीटर दूर आगे बढ़ा ही था कि नक्सलियों ने बारूदी सुरंग विस्फोट कर दिया। विस्फोट में बुलेट पू्रफ वाहन पूरी तरह क्षतिग्रस्त हो गई है। इस विस्फोट में चालक सहित एक जवान शहीद हो गए। इस बीच दोरनापाल से भी मुठभेड़ स्थल की ओर पुलिस बल रवाना हुआ था, जिस पर घाटी के पास नक्सलियों ने हमला कर दिया। बताया जाता है कि वारदात को अंजाम देने के लिए करीब 1000 नक्सली पहले से ही तैयार बैठे थे। सभी मृतक और घायल जवान 62वीं बटालियन के जवान हैं। घायलों को लाने के लिए जगदलपुर से हेलीकाप्टर रवाना किया, जिसके पश्चात बारी-बारी से घायल जवानों को चिंतलनार लाया गया। यहां से घायलों की स्थिति को देखते हुए उन्हें जगदलपुर और रायपुर के अस्पताल रवाना किया गया।
यहां यह उल्लेख करना लाजिमी होगा कि लगभग तीन वर्ष पूर्व बीजापुर जिले के रानीबोदली में नक्सलियों ने मध्य रात्रि में पुलिस कैम्प पर धावा बोलकर 55 जवानों को मौत की नींद सुला दिया था। इधर, गृहमंत्री पी. चिदम्बरम ने आज दिल्ली मे घटना की निंदा की। उन्होंने मृतकों की संख्या और बढऩे की आशंका भी जताई। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने नक्सली हमले की निंदा करते हुए घटना को दुखद बताया। उन्होंने कहा कि यह नक्सल हिंसा की पराकाष्ठा है। नक्सलियों ने हिंसा और अराजकता की सारी सीमाएं पार कर ली है। आज की वारदात से नक्सलियों का असली चेहरा बेनकाब हुआ है। विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रविन्द्र चौबे ने भी घटना की पुरजोर निंदा की है। उन्होंने कहा कि यह वक्त आलोचना करने का नहीं है। जवानों ने पूरा शौर्य दिखाया है। श्री चौबे ने कहा कि बिना किसी योजना के जवानों को बीहड़ों में नहीं भेजा जाना चाहिए।

सोमवार, 5 अप्रैल 2010

मतलब छत्तीसगढ़ में कुपोषण भी है...

- नरेश सोनी -

छत्तीसगढ़ में कुपोषण को खत्म करने के लिए अमेरिका इस राज्य की मदद करने जा रहा है। यह खबर उतनी महत्वपूर्ण नहीं है, जितनी इस खबर के पीछे के सवाल अहम् हैं। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या छत्तीसगढ़ में कुपोषण भी है? योजना आयोग के उपाध्यक्ष डीएन तिवारी की मानें तो छत्तीसगढ़ में कुपोषण दर 52 फीसदी है।
केन्द्रीय योजना के तहत प्रदेश की सरकार आंगनबाडिय़ों के जरिए अरसे से पूरक पोषण आहार उपलब्ध करा रही है। इस योजना का उद्देश्य ही ऐसा आहार उपलब्ध कराना है, जिससे कुपोषण जैसी समस्या खत्म हो। प्रत्येक शहर के प्रत्येक वार्ड में एक आंगनबाड़ी केन्द्र की स्थापना की गई है, जहां न केवल बच्चों बल्कि गर्भवती महिलाओं को भी पूरक आहार मुहैय्या कराया जाता है। इसके अलावा स्कूलों में बच्चों को मध्यान्ह भोजन मिल रहा है। सरकार की 5 रूपए वाली दाल-भात योजना अभी भी चल रही है और इन सबसे बढ़कर 1 और 2 रूपए वाली चावल योजना को भाजपा की सरकार ने अपनी सबसे बड़ी उपलब्धियों में शुमार किया है। दुनिया का ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है, जो दिनभर में एक रूपए नहीं कमा सकता। और इस सिर्फ एक रूपए और मुफ्त नमक की बदौलत एक परिवार भरपेट भोजन कर सकता है।
बावजूद इन सबके क्या छत्तीसगढ़ में कुपोषण जैसी समस्या भी सामने आ सकती है? ... और यदि आ रही है तो फिर अरबों रूपयों की इन सरकारी योजनाओं के मायने क्या है? खबर है कि छत्तीसगढ़ में कुपोषण के खात्मे के लिए अमेरिका, प्रदेश सरकार की मदद करने जा रहा है। एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट की एक टीम ने राज्य के आला अफसरों के साथ हुई एक बैठक में यह वायदा किया है। गौरतलब है कि अमेरिका की एक टीम डॉ. राजीव टंडन की अगुवाई में इन दिनों छत्तीसगढ़ के दौरे पर है। इस टीम ने मुख्य सचिव पी. जॉय उम्मेद से मुलाकात की। बाद में इस टीम ने योजना आयोग, महिला एवं बाल विकास विभाग समेत अन्य विभागों के सचिवों के साथ भी बैठक की। अमेरिकी प्रतिनिधियों को प्रेजेंटेशन के जरिए प्रदेश में कुपोषण से 52 फीसदी प्रभावी होने और उससे निपटने चलाई जा रही योजनाओं की जानकारी दी गई। इन जानकारियों में जो बातें बताई गई वह यह थी कि 11 से 18 साल वाले बच्चे भी कुपोषित हैं। मातृ मृत्यु दर 300 और शिशु मृत्यु दर भी अधिक है। टीम ने राज्य सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयासों की सराहना की। उसने इसमें परिवर्तन और सुधार का भी सुझाव दिया, साथ ही कुपोषण के खात्मे के लिए एक्शन प्लान मांगा।
अब सवाल यह है कि जब आंगनबाड़ी केन्द्रों में बच्चों और गर्भवती महिलाओं के लिए करोड़ों रूपए खर्च कर पूरक और पोषण आहार मुहैय्या कराया जाता है तो बच्चे कुपोषण का शिकार क्यों हो रहे हैं? और मातृ और शिशु मृत्यु दर अधिक क्यों है? क्या इसका मतलब यह है कि शासन की सारी योजनाएं भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ रही है और आम जन को उसका कोई फायदा नहीं मिल पा रहा है? या फिर विदेशों से मिलने वाली आर्थिक सहायता के लिए जानबूझकर ऐसी बातें कही जा रही है?

ख़ता की, जो सच कह बैठे

- नरेश सोनी -

छत्तीसगढ़ के आदिवासी बाहुल्य बस्तर जिले में एक ऐसी घटना घट गई, जो सरकार के लिहाज से कतई उचित नहीं थी। हुआ यह कि यहां के जिला पंचायत प्रभारी सीईओ (आईएएस) एपी मेनन ने जिला पंचायत के पहले सम्मेलन में सरकार की जमकर आलोचना की। उनका कहना था कि प्रदेश की डॉ. रमन सिंह सरकार के पास विकास की कोई योजना है, न स्पष्ट नीति। यह सरकार महज सस्ता चावल बांटकर क्षेत्र का विकास करना चाहती है। यदि सरकार को गरीबों को चावल ही देना है तो अरवा या उसना की बजाए बासमती दे। मेनन ने सरकार की नक्सल उन्मूलन नीति पर भी कई सवाल उठाए।
जाहिर है कि जो लोग आइना देखने से बचते रहे हैं, उन्हें एक अफसर का इस तरह की कटु टिप्पणियां करना पसंद नहीं आया। नतीजतन मेनन को पद से हटा दिया गया। उनकी जगह पी. प्रकाश को बीजापुर जिला पंचायत का नया सीईओ बनाया गया है। अब बात मेनन द्वारा दिखाए गए आइने की - प्रदेश की सरकार अपने चुनावी घोषणा पत्र के अनुरूप प्रत्येक गरीब परिवार को एक और दो रूपए किलो चावल मुहैय्या करा रही है। प्रारंभिक तौर पर देखने पर तो यह योजना क्रांतिकारी लगती है, किन्तु इसके दुष्प्रभाव अब नजर आने लगे हैं। केन्द्र सरकार की राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना का भट्ठा बैठ चुका है। इस योजना के लिए प्रशासन को मजदूर सिर्फ इसलिए नहीं मिल पा रहे हैं क्योंकि मजदूरों को महीने में महज 30 रूपए खर्च कर भरपेट भोजन मिल जा रहा है। नमक तो खैर मुफ्त में मिल ही रहा है। अब जिनको इस दर पर अनाज मिल रहा हो, वह मेहनत क्यूंकर करेगा? ...सीधे-सीधे सरकार की सस्ता चावल बांटने वाली योजना ने गरीब, मजदूरों को अलाल और कामचोर बनाकर रख दिया है। किसी भी लोकतांत्रिक सरकार के लिए यह सबसे बड़ी खतरे की घंटी है कि उसका मानव श्रम घरों में दुबका रहकर जनसंख्या बढ़ाने का काम करे, और अपनी हड्डियों में जंग लगवा बैठे। यदि कल यह सरकार नहीं रही और अगली सरकार ने चावल योजना को बंद कर दिया या सीमित कर दिया तो अलाल और कामचोर बन चुके लोगों और उनके परिवार का क्या होगा?
वास्तव में सस्ते चावल जैसी योजनाएं चलाने की बजाए सरकार को स्वरोजगार या रोजगारोन्मुखी कार्यक्रम चलाना था। (सरकार यह तर्क दे सकती है कि वह ऐसा कर रही है, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही है।) इस तरह के कार्यक्रमों में लागत भी कम आती और लोगों को आजीविका का स्थाई साधन भी मिल पाता। इस लिहाज से देखें तो आईएएस एलेक्स पाल मेनन की बातों में भविष्य की चिंता झलकती है। भले ही उनकी साफगोई को सरकार विरोधी बताया जा रहा हो, लेकिन ऐसे अफसर सम्मान के पात्र होते हैं। दरअसल, मेनन के बयान की जब मुख्यमंत्री तक शिकायत पहुंची तो प्रदेश के मुखिया ने मुख्य सचिव जॉय उम्मेद को तलब तक मेनन को तत्काल हटाने का आदेश दिया। इसी आदेश के तहत मेनन को बीजापुर जिला पंचायत से चलता किया गया। बीजापुर को अलग राजस्व जिला बनाए जाने के बाद यहां पहली बार जिला पंचायत का गठन हुआ है।

उसना पर बवाल

अपने चुनावी घोषणा-पत्र के अनुरूप राज्य सरकार गरीबों को अब तक अरवा चावल उपलब्ध कराती रही है, किन्तु चावल की कमी के चलते उसे पड़ोसी राज्यों से उसना चावल आयात करना पड़ रहा है। आमतौर पर छत्तीसगढ़ के लोग उसना चावल नहीं खाते हैं। कई लोगों ने शिकायत भी की है कि सरकार द्वारा जबरिया दिए जा रहे उसना चावल खाने से पेट में दर्द, ऐंठन और दस्त जैसी शिकायतें सामने आ रही है। यह मामला विधानसभा में भी उठ चुका है और पूरे प्रदेश में अरवा की बजाए उसना चावल दिए जाने को लेकर सरकार की आलोचना भी हो रही है। दरअसल, उसना चावल दिए जाने की भी अपनी वजह बताई जा रही है। कहा जा रहा है कि सरकार की अपेक्षाओं से विपरीत राज्य में गरीबों की संख्या अकस्मात इतनी बढ़ गई कि प्रत्येक को चावल देना संभव नहीं हो रहा था। इसीलिए उसना चावल उपलब्ध कराया जा रहा है। इसका एक फायदा यह है कि उसना चावल का नाम सुनते ही लोग चावल लेने से मना कर देते हैं। दूसरा फायदा यह है कि चावल का उठाव कम होने से सरकार को होने वाला नुकसान भी कम होगा। ...और सबसे बड़ी बात इस योजना पर ज़ाया होने वाला सरकार का वक्त भी बचेगा।

००००

मंगलवार, 30 मार्च 2010

सरोज पाण्डेय होने के मायने

- नरेश सोनी -

भिलाई जैसे छोटे से क्षेत्र से राजनीति की शुरूआत करने वाली सरोज पाण्डेय आज दुर्ग संसदीय क्षेत्र की सांसद हैं और भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में सचिव बनाई गई हैं। भारतीय जनता पार्टी ने जब उन्हें भिलाई से दुर्ग लाकर महापौर का टिकट दिया था, तब किसी ने सोचा भी नहीं था कि यह सरोज इतने लम्बे समय तक खिला भी रह सकता है और न सिर्फ खिला रह सकता है बल्कि और लोगों को भी पल्लवित-पुष्पित करने में सहायक होगा। आज सांसद सरोज की पहचान एक मुखर वक्ता और बेहतरीन नेतृत्वकत्र्ता की है और शायद यही वजह है कि वे छत्तीसगढ़ की कद्दावर नेताओं में गिनीं जानें लगी हैं।
महापौर के अपने दस वर्षों के दो कार्यकाल में दुर्ग शहर का चेहरा बदलने वाली सरोज इस दौरान वैशाली नगर विधानसभा क्षेत्र से विधायक और दुर्ग लोकसभा से सांसद भी निर्वाचित हुईं। ऐसे बिरले ही लोग होते हैं, जिन्हें इतने कम समय में ऐसी उपलब्धियां हासिल हों। जिस सरोज को महापौर का टिकट दिए जाने पर दुर्ग में विरोध के पुरजोर स्वर उभरे, आज उस दुर्ग में उनके समर्थकों की संख्या इस बात की गवाह है कि सरोज पाण्डेय होने के क्या मायने हैं।
बात सिर्फ सरोज पाण्डेय की उपलब्धियों और समर्थकों की संख्या तक ही नहीं है। इन दस वर्षों में जितने लोगों ने उन्हें समर्थन दिया, आज वे सत्ता या संगठन के अहम् पदों पर हैं। भाजपा या कांग्रेस में इस तरह की क्रांति पहले कभी नहीं आई। प्रत्येक उस नेता ने जिसका कद बढ़ गया, अपने समर्थकों को सिर्फ समर्थक तक ही सीमित रखा। उन्हें आगे बढ़ाने में कभी सहयोग नहीं किया। मोतीलाल वोरा और चंदूलाल चंद्राकर से लेकर दुर्ग जिले की राजनीति के अग्रज रहे चौबे बंधुओं के उदाहरण कांग्रेस में मौजूद हैं तो भाजपा में पूर्व सांसद ताराचंद साहू से लेकर वर्तमान में केबिनेट मंत्री हेमचंद यादव तक के नाम हैं। कांग्रेस के बनिस्बत् भाजपा का राजनीतिक सफर छोटा जरूर रहा है लेकिन दोनों ही पार्टियों में हालात् एक जैसे रहे। मोतीलाल वोरा के लिए तन, मन और धन लगाने वाले लोग लम्बे समय तक हाशिए पर रहे। वोरा की विरासत जब उनके पुत्र अरूण वोरा ने संभाली तो इन समर्थकों के समझ में आया कि अपनी जिंदगी वोरा परिवार को समर्पित करने के बाद उनके हाथ अब यह आया है कि वे पिता के बाद पुत्र की सेवा करें। नतीजतन वोरा के समर्थकों की संख्या बेहद तेजी से गिरी और वोरा की विरासत संभालने वाले उनके पुत्र अरूण वोरा तीन बार विधानसभा का चुनाव हार गए। तब जाकर मोतीलाल वोरा को समझ आया कि गड़बड़ कहां हो रही है। अब वे अपनी पुरानी गलतियों को सुधारने में लगे हैं। अपने एक करीबी समर्थक भजनसिंह निरंकारी को उन्होंने वैशाली नगर विधानसभा का टिकट दिलवाया तो एक अन्य समर्थक शंकरलाल ताम्रकार को दुर्ग से महापौर का टिकट दिलवाया। यह तो रही कांग्रेस की बात। लेकिन भाजपा भी इससे अछूती नहीं रही। उसके 5 बार के सांसद ताराचंद साहू हमेशा अपने बंगले में कैद रहे और जातीयवादी राजनीति को बढ़ावा देते रहे। उनका कोई समर्थक खास मुकाम हासिल नहीं कर पाया। यहां तक कि साहू ने कभी अपने लोगों को संगठन में भी महत्व दिलवाना मुनासिब नहीं समझा।
तत्कालीन विधानसभा के अध्यक्ष और भिलाई के विधायक प्रेमप्रकाश पाण्डेय ने उनके खिलाफ मोर्चा खोला तब जाकर उन्हें भी अहसास हुआ कि सांसद होने के बावजूद वे किस जगह पर खड़े हैं। और इसी के बाद पहले अघोषित और फिर घोषित तौर पर युद्ध प्रारम्भ हो गया। इस युद्ध का नतीजा ताराचंद साहू को पार्टी से निष्कासन के रूप में भोगना पड़ा और अब वे छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच नाम के एक संगठन के बैनर तले अपने समर्थकों को एकजुट करने में लगे हैं। यह हालात कमोबेश वैसे ही हैं, जैसे मोतीलाल वोरा के साथ रहे। पद पर रहते और सत्तासुख भोगते इन्हें कभी अपने समर्थकों की याद नहीं आई। उन्होंने अपने तमाम समर्थकों के बावजूद अपने एक नौसिखिए पुत्र को साजा विधानसभा से टिकट दिलवाई तो पार्टी से बगावत कर अपनी पुत्री झमिता साहू को जिला पंचायत का अध्यक्ष बनवाया। उन्होंने जो कुछ किया, अपने और अपने परिवार के लिए।
दुर्ग से तीन बार विधायक और दो बार के केबिनेटमंत्री हेमचंद यादव भी मोतीलाल वोरा और ताराचंद साहू की राह पर हैं। सुख और आराम के तलबगार इस मंत्री को लेकर तरह-तरह की बातें होती है, बावजूद इसके अज्ञात कारणों से उन्हें साफ-सुथरी छवि का लबादा ओढ़ाया जाता रहा है। जिस मंत्री की सुुबह 10 बजे होती है और जो घर से 12 बजे निकलता है, ऐसे मंत्री के खिलाफ नाराजगी स्वाभाविक है। फरियादी चाहे अपने आवेदन लेकर घर के बाहर बैठे रहें, लेकिन मंत्रीजी का जो वक्त है, उससे पहले और बाद किसी के लिए कोई जगह नहीं है। इसीलिए उनके प्रति न केवल भाजपाइयों बल्कि दुर्ग के लोगों की भी नाराजगी बढ़ती गई और इसी का नतीजा है कि पिछले विधानसभा चुनाव में वे महज 700 वोटों के अंतर से ही जीत पाए। उनके कई समर्थक पिछले विधानसभा चुनाव में नाराज होकर इसलिए घर बैठ गए थे कि मंत्री ने हमारे लिए क्या किया?
इन तमाम नेताओं के विपरीत सरोज पाण्डेय ने सबसे पहले अपने समर्थकों की संख्या में इजाफा किया। भुखे भजन न होय गोपाला की तर्ज पर उन्होंने अपने संघर्ष के दिनों के साथियों को किसी न किसी पद पर स्थापित कराया। संगठन के साथ ही किसी न किसी लाभ के पद पर बैठाया। सरोज खुद प्रदेश महामंत्री और प्रवक्ता के पद पर रहीं और अब सांसद हैं, लेकिन उनके समर्थक उनके साथ बराबर बने हुए हैं। वैशाली नगर विधानसभा के उपचुनाव के दौरान जब संगठन ने उनका साथ छोड़ दिया और भिलाई के नेताओं ने उनके लिए काम करने से मना कर दिया तो दुर्ग के उनके समर्थकों ने मोर्चा संभाला। यह दीगर बात है कि आज भिलाई में उनके समर्थकों की संख्या दुर्ग से कहीं कम नहीं है। सरोज पाण्डेय होने के मायने यह भी है कि जिस दुर्ग नगर निगम को उन्होंने विकास कार्यों और सौंदर्य के लिहाज से प्रदेश में सर्वोच्च मुकाम पर पहुंचाया, आज उनकी गैरमौजूदगी में वह निगम कर्मचारियों की तनख्वाह को तरस रहा है और विकास कार्य को खैर ठप्प पड़े ही हैं। इन्हीं सरोज पाण्डेय की एक आवाज पर नगर निगम के कर्मचारी थर्राने लगने थे, लेकिन आज यही कर्मचारी स्वेच्छाचारी हो गए हैं और नगर निगम का काम एक बार फिर से पुराने ढर्रे पर आ गया है।

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

क्या महंत होंगे केन्द्रीय मंत्री?

रायपुर। केन्द्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल और छत्तीसगढ़ को लम्बे समय बाद प्रतिनिधित्व मिलने की खबरों से राज्य के आला नेताओं के कान खड़े हो गए हैं। पिछले दिनों हमने अपने इसी ब्लाग में कहा था कि यहां से खाली हो रही मोहसिना किदवई की राज्यसभा सीट पर कई लोगों की निगाहें लगी हुई है। छत्तीसगढ को केन्द्रीय मंत्रिमंडल में प्रतिनिधित्व मिलने के संकेत के साथ ही राज्यसभा की उम्मीद पालने वालों की संख्या और बढऩे की संभावना है। फिलहाल इस राज्यसभा सीट पर वरिष्ठ नेता विद्याचरण शुक्ल की निगाहें लगी हुई हैं। उनके अलावा लोकसभा सांसद चरणदास महंत, पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी, पूर्व मंत्री अरविंद नेताम भी प्रमुख दावेदारों में शुमार हैं। इन नेताओं के समर्थकों को लगता है कि यदि यह सीट हाथ गई तो केन्द्रीय मंत्री का पद ज्यादा दूर नहीं होगा।
छत्तीसगढ़ से खाली हो रही राज्यसभा सीट के लिए दावेदार कौन होगा, यह तो फिलहाल स्पष्ट नहीं है, लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है कि वरिष्ठ नेता मोतीलाल वोरा की पसंद को जरूर तवज्जो मिलेगी। लम्बे समय से कांग्रेस का कोष संभालने वाले वोरा समन्वय की राजनीति पर यकीन करते हैं और इसीलिए किसी ऐसे नेता के चुने जाने की संभावना कम ही है जो गुटबाजी को प्रश्रय देता है। इसके अलावा पार्टी के प्रति निष्ठा भी प्रमुख पैमाना होगा, ऐसा जिम्मेदार नेताओ का मानना है। इधर, आदिवासी वर्ग को प्रतिनिधित्व दिए जाने की भी मांग उठने लगी है। आदिवासियों के प्रमुख गढ़ बस्तर से कांग्रेस फिलहाल पूरी तरह साफ है और यदि इस वर्ग को महत्व मिलता है तो भविष्य में पार्टी को फायदा होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन दिक्कत यह है कि कांग्रेस के पास प्रभावशाली आदिवासी नेतृत्व का अभाव है। विधानसभा में पूर्व नेता प्रतिपक्ष महेन्द्र कर्मा और पूर्व मंत्री अरविंद नेताम का नाम उभरकर जरूर आता है, पर कर्मा विधानसभा चुनाव में हार के बाद से घर में बैठे हुए हैं। सलवा जुड़ूम अभियान चलाने और नक्सलियों के खिलाफ मोर्चा खोले जाने को लेकर वे किसी समय खूब चर्चा में रहे, किन्तु अब उनकी गतिविधियां भी ठप्प पड़ी हुई हैं। किसी समय विश्वव्यापी सुर्खियां बटोरने वाला सलवा जुडूम अभियान अब बंद हो चुका है। नक्सलियों से बैर मोल लेने की वजह से कर्मा परिवार को कई बलिदान देने पड़े। अब भी महेन्द्र कर्मा नक्सलियों की हिटलिस्ट में हैं। दूसरी ओर अरविंद नेताम तो कई बरसों से सक्रिय नहीं हैं। विधानसभा चुनाव में उन्होंने अपनी पुत्री प्रीति नेताम को टिकट दिलवाई थी, किन्तु वे उसे जितवाकर नहीं ला पाए।
पृथक राज्य बनने के बाद से ही कांग्रेस के सत्ता और संगठन में गुटबाजी हावी रही है। जोगी को मुख्यमंत्री बनाए जाने के बाद उन्होंने बाकी गुटों को जमकर पानी पिलाया। नतीजतन तत्कालीन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष को उनके समक्ष समर्पण करना पड़ा जबकि उन्हें वोरा का खास समर्थक माना जाता था। विद्याचरण शुक्ल छिटककर दूसरे दल में चले गए तो खुद वोरा ने राज्य की राजनीति से तौबा कर ली और चुप हो गए। यह हालात लगातार कायम रहे जब तक विधानसभा के चुनाव में पार्टी को पराजय नहीं मिली। भाजपा के सत्ता में आने के बाद कांग्रेस के बाकी सभी गुट एकजुट हो गए और जोगी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। यही स्थिति आज भी बरकरार है। हालांकि अब जोगी दम्पत्ति विधायक हैं और अपने पुत्र अमित जोगी को युवक कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष बनवाने प्रयासरत् हैं। लेकिन उन्हें अन्य वरिष्ठ नेताओं का समर्थन नहीं मिल पा रहा है। इसलिए इस बात की संभावना कम ही है कि जोगी राज्यसभा तक पहुंच पाएंगे।
मिल रही खबरों के मुताबिक, केन्द्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल का खाका खींचा जा रहा है। संभावना है कि जून-जुलाई में यह काम कर लिया जाएगा। फिलहाल केन्द्रीय मंत्रिमंडल में 78 मंत्री हैं। जबकि अधिकतम 81 मंत्री बनाए जा सकते हैं। छत्तीसगढ़ को छोड़कर लगभग सभी राज्यों को मंत्रिमंडल में स्थान मिला है। पिछले लोकसभा चुनाव में यहां से इकलौते चरणदास महंत ही चुनाव जीते थे। इसलिए महंत स्वाभाविक दावेदार के रूप में भी सामने आ रहे हैं। पार्टीजनों की मानें तो उनके नाम पर किसी को ऐतराज भी नहीं होगा। वे युवा हैं और कांग्रेस में फिलहाल युवाओं को ज्यादा तरजीह दी जा रही है।
००००

इस थप्पड़ की गूंज दूर तक जाएगी नेताम जी

रायपुर। विधिमंत्री रामविचार नेताम के एक थप्पड़ ने छत्तीसगढ़ में भूचाल ला दिया है। इस थप्पड़ की गूंज अब तक महसूस कर रहे बिलासपुर के एसडीएम संतोष देवांगन ने मंत्री के खिलाफ मोर्चा खोला तो इसके जवाब में नेताम को बचाने आदिवासी विकास परिषद सामने आ गया है। पूरा मामला मुख्यमंत्री तक पहुंचाने के बाद अब राज्य प्रशासनिक सेवा के कई अफसर मंत्री को निपटाने की कोशिशों में लग गए हैं। इन कोशिशों को आगे बढ़ाने में भी भाजपा का ही एक वर्ग भरपूर सहयोग कर रहा है। एक ओर जहां आविप ने नेताम को बचाने प्रदेशव्यापी मोर्चा खोल दिया है तो दूसरी ओर संसदीय सचिव और विधायक भैय्यालाल रजवाड़े पूरे घटनाक्रम के लिए एसडीएम देवांगन को ही कटघरे में खड़ा किया है।
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधिपति केजी बालकृष्णन पिछले शनिवार को एक कार्यक्रम में शिरकत करने बिलासपुर आए थे। इसी कार्यक्रम में भाग लेने राज्य के विधिमंत्री रामविचार नेताम भी पहुंचे। यहां पहुंचने के बाद उन्हें पता चला कि एसईसीएल के गेस्ट हाउस में उनके लिए कमरा आरक्षित नहीं करवाया गया है। मंत्री नेताम ने पूछताछ की तो कोई जवाब देने वाला नहीं मिला। नतीजतन मुख्य न्यायाधिपति के कार्यक्रम में ड्यूटी बजा रहे बिलासपुर के एसडीएम संतोष देवांगन को गेस्ट हाउस बुलाया गया जहां मंत्री ने बातचीत के दौरान कथित तौर पर देवांगन को थप्पड़ मार दिया। एसडीएम देवांगन ने दूसरे दिन कलेक्टर सोनमणि बोरा को घटना की लिखित जानकारी दी। बाद में उन्होंने राज्य प्रशासनिक सेवा संघ से भी मामले की शिकायत की। संघ ने राजधानी रायपुर में एक आपात बैठक करने के बाद पूरे वाकये से मुख्यमंत्री को अवगत कराया और दोषी मंत्री पर कार्यवाही की मांग की।
खुद के खिलाफ इस तरह मोर्चा खोले जाने की उम्मीद शायद विधिमंत्री को भी नहीं थी। दरअसल, उनकी अपनी पार्टी के कई लोग इस मामले को तूल दे रहे थे। भाजपा के कई वरिष्ठ नेता नेताम की कार्यप्रणाली से नाखुश बताए गए हैं। शायद इसीलिए एक बेहतरीन मौका हाथ लगने के साथ ही उन्होंने आग में घी डालना शुरू कर दिया। मंत्री नेताम को इसकी जानकारी हुई तो आदिवासी विकास परिषद को सामने ले आए। अब परिषद एसडीएम मारपीट प्रकरण को आदिवासी समाज के साथ जोड़कर पुतले फूंकने और राज्यव्यापी माहौल बनाने की कोशिश कर रही है। उसके नेताओं का आरोप है कि आदिवासी मंत्री को अकारण फंसाया जा रहा है। इधर, भाजपा के ही एक विधायक और संसदीय सचिव भैय्याराल रजवाड़े ने एसडीएम संतोष अग्रवाल पर ही ठिकरा फोड़ दिया है। उनके मुताबिक, ''एक बार देवांगन ने उनसे परिचय मांगते हुए कह दिया था कि किसी के माथे पर नहीं लिखा है कि संसदीय सचिव है।ÓÓ
दूसरी ओर बिलासपुर के राजपत्रित अधिकारी संघ ने मंत्री रामविचार नेताम के कृत्य की आलोचना करते हुए ग्राम सुराज अभियान के बहिष्कार और मंत्री के प्रोटोकाल से पल्ला झाडऩे की चेतावनी दी है। यदि ग्राम सुराज जैसा अभियान असफल होता है तो इससे सरकार की किरकिरी होने से भी इनकार नहीं किया जा सकता। फिलहाल इस मामले से उपजा विवाद थमता नहीं दिख रहा है। विरोध और बचाव का क्रम यदि इसी तरह जारी रहा तो संभव है कि मुख्यमंत्री को इस मामले में हस्तक्षेप करना पड़े। प्रशासनिक अफसर जिस तरह से मंत्री के खिलाफ लामबंद हो रहे हैं, उसके बाद इस बात की भी संभावना बढ़ गई है कि कहीं मंत्री नेताम ही न निपट जाएं। कम से कम इतना तो कहा ही जा सकता है कि मंत्री के थप्पड़ की गूंज दूर तक जाएगी।

गुरुवार, 18 मार्च 2010

मोहसिना की सीट पर निगाहें

छत्तीसगढ़ के कई नेताओं की निगाहें जून में कार्यकाल पूरा कर रही मोहसिना किदवई की राज्यसभा सीट पर है। किदवई को हज कमेटी का अध्यक्ष बना दिया गया है, इसलिए अब इस बात की संभावना कम ही है कि उन्हें फिर से राज्यसभा में भेजा जाए। राज्य के कई दिग्गजों की राजनीति जंग खा रही है। ऐसे कांग्रेसियों की मंशा एक बार फिर अपनी राजनीति को चमकाने की है। इसके लिए प्रयास भी तेज कर दिए गए हैं। आलाकमान तक सम्पर्क बनाने और मेल-जोल बढ़ाने का काम भी शुरू हो गया है।
कांग्रेस की महासचिव मोहसिना किदवई का कार्यकाल 29 जून को खत्म हो रहा है। अब तक जो संकेत मिले हैं, उसके मुताबिक, पार्टी आलाकमान ने किदवई को रिपीट नहीं करने का मन बना लिया गया है। इस संकेत के साथ ही राज्य के कई प्रमुख नेता सक्रिय हो गए हैं। लम्बे समय से उपेक्षित रहे पूर्व केन्द्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल को इस राज्यसभा सीट का प्रमुख दावेदार माना जा रहा है। इसके लिए उन्होंने कोशिशें भी तेज कर दी हैं। फिलहाल वे आला नेताओ से संबंध सुधारने से लेकर मेलजोल बढ़ाने का काम कर रहे हैं, ताकि मौका आने पर इसे भुनाया जा सके। शुक्ल के समर्थकों की छत्तीसगढ़ में कमी नहीं है, लेकिन यह भी सच है कि इतने ही विरोधी भी उन्होंने पाल रखे हैं। इसलिए राज्यसभा जाने की उनकी राह आसान नहीं है। कभी छत्तीसगढ़ की राजनीति में एकछत्र राज करने वाले शुक्ल ने कई बार पार्टियां बदली और फिर कांग्रेस में लौटे। अंतिम बार वे भाजपा में चले गए थे, किन्तु बाद में उनकी कांग्रेस में वापसी हो गई। उनके राजनीतिक विरोधी रहे पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी खुद इस सीट पर नजर गड़ाए हैं। जोगी के कई समर्थको ने इसके लिए लॉबिंग भी शुरू कर दी है। सिर्फ इतना ही नहीं, जोगी को राज्यसभा में लेने और उसके बाद मंत्रिमंडल में शामिल करने की बातें भी की जाने लगी है। फिलहाल जोगी विधानसभा के सदस्य हैं और उनके स्वास्थ्य को देखते हुए राज्यसभा पहुंचने का रास्ता बंद बताया जा रहा है। वैसे भी, जोगी गुट को छोड़कर और कोई नहीं चाहता कि उन्हें फिर से ऐसा कोई पॉवर मिले कि मुश्किलें पैदा हो। मामला क्योंकि छत्तीसगढ़ से जुड़ा है इसलिए राज्यसभा के लिए चेहरे के चयन में मोतीलाल वोरा की भूमिका अहम होगी। वोरा खुद भी राज्यसभा के सदस्य हैं। वोरा बेहद शांतमिजाज व्यक्ति हैं और आमतौर पर अपनी राय जाहिर नहीं करते हैं।
जोगी के समर्थक और पूर्व विधायक अमरजीत भगत समेत अन्य लोग वरिष्ठ नेताओं के समक्ष अपनी भावनाएं रख आए हैं। समर्थकों के मुताबिक, यदि जोगी को राज्यसभा सदस्य बनाकर मंत्री बनाया जाता है तो छत्तीसगढ़ के साथ ही उड़ीसा और झारखंड जैसे आदिवासी राज्यों में पार्टी को खड़ा करने में आसानी होगी। इधर, बस्तर के वरिष्ठ आदिवासी नेता अरविंद नेताम भी राज्यसभा टिकट की जुगाड़ में हैं। हालांकि प्रदेश कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष और सांसद चरणदास महंत की मंशा है कि नेताम को आदिवासी आयोग का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया जाए। अनुसूचित जाति कोटे से दो पूर्व सांसद परसराम भारद्वाज और कमला मनहर भी राज्यसभा जाने की इच्छा रखते हैं। फिलहाल दोनों हाशिए पर हैं। इन नामों के अलावा कई और लोग भी हैं, जो राज्यसभा जाने की उम्मीद पाले बैठे हैं। वे हाल-फिलहाल दिल्ली के आकाओं तक अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में लगे हैं।

टीम में गड़बड़ी है गड़करी जी

भाजपा की बहुप्रतीक्षित टीम गड़करी की घोषणा तो कर दी गई, लेकिन इस टीम को लेकर पार्टी के भीतर ही भीतर असंतोष के स्वर भी सुनाई पडऩे लगे हैं। सबसे ज्यादा नाराजगी छत्तीसगढ़ के आदिवासी वर्ग में है, जिसे कम से कम इस बार तो राष्ट्रीय टीम में शामिल होने की उम्मीद थी। इसके अलावा मुस्लिम तबका भी नाराज़ है।
पिछले करीब 10 वर्षों से छत्तीसगढ़ के आदिवासी समय-बेसमय एकजुट होते रहे हैं और अपनी ताकत का अहसास भी कराते रहे हैं। पिछले दो विधानसभा चुनाव में आदिवासियों के बूते ही भाजपा छत्तीसगढ़ में सरकार बनाने में कामयाब रही। बावजूद इसके सत्ता से लेकर संगठन तक में उनकी उपेक्षा की जाती रही है। राजनाथ सिंह की पिछली टीम में छत्तीसगढ़ से करूणा शुक्ला उपाध्यक्ष और सरोज पाण्डेय सचिव बनाईं गईं थीं। गड़करी ने इन दोनों को इसी पद पर बरकरार रखा है। दिलीप सिंह जूदेव को कार्यकारिणी में रखा गया है तो मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह और संसदीय दल के सचेतक रमेश बैस को स्थाई आमंत्रित सदस्य बनाया गया है।
हाल ही में राजधानी रायपुर में पूरे छत्तीसगढ़ के आदिवासियों ने रैली कर अपनी ताकत दिखाई थी। इस रैली में भाजपा, कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टी समेत अन्य दलों के आदिवासियों ने शिरकत की और मुख्यमंत्री और राज्यपाल जैसे अहम् पदों पर अपनी दावेदारी ठोंकी थी। किन्तु भाजपा संगठन में ही उनकी एक बार फिर उपेक्षा कर दी गई। राज्य में आदिवासी एक्सप्रेस चलने की खबरें प्रमुखता पाती रही हैं। खासतौर पर स्वयं को आदिवासी बताने वाले अजीत जोगी के शासनकाल के दौरान आदिवासी लामबंद हुए। इन आदिवासियों का नेतृत्व तब वरिष्ठ भाजपा नेता नंदकुमार साय ने किया था- जो अपनी कठोर टिप्पणियों के लिए जाने जाते हैं। संभवत: यही वह वक्त था, जब 'इंदिरा प्रेमी आदिवासी भाजपा की ओर उन्मुख हुए। लेकिन साय को भी इसका कोई प्रतिसाद नहीं मिल पाया। फिलहाल वे हाशिए पर हैं, पर उनकी तैयार की गई जमीन पर भाजपा अब भी वोटों की खेती कर रही है।
सिर्फ आदिवासी ही नहीं, मुसलमानों में भी टीम गड़करी को लेकर नाराजगी का पुट है। मंदिर-मस्जिद मिलकर बनाने, मुसलमानों के साथ सामंजस्य बनाकर काम करने और पार्टी का प्रचलित चोला बदलने की बात करने वाले गडकरी की टीम में अपनी नजरअंदाजी मुसलमान पचा नहीं पा रहे हैं। हालांकि छत्तीसगढ़ भाजपा में कोई बड़ा मुस्लिम नेतृत्व उभरकर सामने नहीं आया है, फिर भी अपने समाज को लीड करने वाले कई नेता चिंतित हैं। दरअसल, अपना राजनैतिक कद बढ़ाने की लगातार कोशिशें करने वाले भाजपा के मुस्लिम नेताओं को इस बात की चिंता सता रही है कि अपने लोगों के बीच जाकर वे क्या संदेश देंगे? गौरतलब है कि राज्य के अधिकांश मुसलमान आज भी भाजपा से दूर हैं। विकल्प के अभाव में वे कांग्रेस का साथ देते रहे हैं। उन्हें पार्टी के करीब लाने के लिए भाजपा की अल्पसंख्यक इकाइयां लगातार काम कर रही हैं, लेकिन उनकी कामयाबी का प्रतिशत बेहद कम है। सही मायनों में, छत्तीसगढ़ की अल्पसंख्यक बिरादरी भाजपा को अछूत मानती रही है। उसके कई कट्टरपंथी नेताओं की कड़वी जुबान से यही बिरादरी आहत होती है। शायद यही वजह है कि भाजपा के अल्पसंख्यक नेताओं से समाज के लोग कुछ दूरी बनाकर रखते हैं। भले ही पार्टी के नेता इसे स्वीकार नहीं करे और यह दावा करें कि अब अल्पसंख्यक वर्ग भाजपा के साथ हैं, किन्तु हकीकत यही है कि भाजपा अब तक मुसलमानों का विश्वास अर्जित नहीं कर पाई है।
पार्टी के एक जिम्मेदार मुस्लिम नेता के मुताबिक, हर बार यदि प्रचलित चेहरों को ही मौका दिया जाएगा तो बाकी लोग क्या करेंगे? जो लोग पहले से ही महत्वपूर्ण पदों पर हैं या सांसद, मंत्री हैं, उन्हें ही हर बार महत्व मिलता रहेगा तो उन लोगों का क्या- जो पूरी जिम्मेदारी के साथ काम कर रहे हैं और जिन पर पूरे समाज या समुदाय की जिम्मेदारी है? प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष विष्णुदेव साय के मुताबिक, भाजपा की राष्ट्रीय टीम में प्रदेश के चार पदाधिकारियों दिलीप सिंह जूदेव, करूणा शुक्ला, सरोज पान्डेय व सौदान सिंह सहित सात सदस्यों को दिए प्रतिनिधित्व दिया गया है। इस नई टीम से प्रदेश को नई दिशा मिलेगी।
दुर्ग जिले की सांसद सरोज पाण्डेय की नेतृत्व क्षमता पर शायद ही किसी को संदेह हो। महज कुछ वर्षों में एक सामान्य कार्यकर्ता से ऊपर उठकर वे दो बार महापौर, 1 बार विधायक और अब सांसद निर्वाचित हुई। कुछ समय में ही उन्होंने प्रदेश भाजपा की प्रवक्ता और राष्ट्रीय मंत्री तक का सफर तय किया। ऐसे नेतृत्व को सामने लाने का पार्टी में जोरदार स्वागत किया जाना चाहिए और सही मायनों में ऐसे युवाओं पर ही भाजपा की भावी कमान होगी। लेकिन पार्टी को और ज्यादा निखारने और छूट रहे बड़े वर्ग को प्रतिनिधित्व देना भी पार्टी की ही जिम्मेदारी है। बेहद स्वादिष्ट भोजन में एक कंकड़ ही पूरा स्वाद खराब कर देता है। भाजपा के जायके में ऐसा कोई कंकड़ न आए, इसका गड़करी को ध्यान रखना होगा।

शनिवार, 13 मार्च 2010

आधा दर्जन आईएफएस अधिकारियों की होगी जांच

रायपुर, 14 मार्च। लोक आयोग ने मस्टर रोल में गड़बड़ी की शिकायत पर आईएफएस के आधा दर्जन से अधिक अधिकारियों के खिलाफ विभागीय जांच की जाने की शिफारिश की है।
आयोग से मिली जानकारी के अनुसार सरगुजा रेंज के वन संरक्षक तपेश कुमार झा समेत 7-8 अधिकारियों कर्मचारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में कार्रवाई की अनुशंसा की है। फर्जी मस्टर रोल में गड़बड़ी का यह मामला 5-6 साल पुराना है। इस दौरान आईएफएस अफसर झा कांकेर में पदस्थ थे। कांकेर के वन अफसरों के खिलाफ रेंज के नरहरपुर इलाके में फर्जी मस्टर रोल के आधार पर हजारों-लाखों का भुगतान करने की शिकायत की गई थी। लोक आयोग ने शिकायत की जांच के बाद गड़बड़ी के आरोपों को सही पाया। बताया गया कि इलाके के रेंजर और अन्य अधिकारियों ने जानबूझकर फर्जी बिल का भुगतान किया। जांच में पाया गया कि पूरे फर्जीवाड़े की जानकारी तत्कालीन वन मंडलाधिकारी को थी। उन्होंने बिल की जांच-पड़ताल किए बिना भुगतान का आदेश दे दिया। आरोग ने इस मामले में आईएफएस झा के खिलाफ कार्रवाई के लिए मुख्यमंत्री डॉ. रमनसिंह को रिपोर्ट भेज दी है। भारतीय प्रशासनिक सेवा के अफसर होने के कारण पूरी रिपोर्ट मुख्यमंत्री को सौंपी गई है। मामले में दोषी बाकी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई के लिए वन सचिव को अनुशंसा की गई है।
उल्लेखनीय है कि झा के खिलाफ गड़बड़ी और भ्रष्टाचार की काफी शिकायतें है। कई मामलों की जांच भी चल रही है। लोक आयोग ने हाल ही में एक आईएएस नंदकुमार समेत चार अफसरों के खिलाफ भी विभागीय जांच की सिफारिश की है। इस मामले में शासन स्तर से कार्रवाई नहीं हुई है।
०००
चॉइस सेंटरों से लोगों का मोहभंग
रायपुर, 14 मार्च। रायपुर नगर निगम के जन्म-मृत्यू पंजीकरण के लिए स्थापित चॉइस सेंटरों से लोगों का मोहभंग हो गया है। इसका उदाहरण पिछले एक साल से अधिक समय में निगम की चॉइस सेंटरों में मात्र 32 हजार सात सौ नाम ही पंजीकृत हुए है। वजह यह भी है कि, पिछले सात सालों में 23 मे से 10 चॉइस सेंटर बंद हो गए जिसे अब तक चालू नहीं किया जा सका है। इस पर किसी का ध्यान नहीं गया है।
रायपुर की जनसंख्या 13 लाख को पार कर गई है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में आम लोगों के जन्म-मृत्युपंजीयन के साथ यहां विवाह पंजीयन प्रमाण पत्र देनें की व्यवस्था की है। सात वर्षों पूर्व से शहर के 23 अलग-अलग जगहों पर चॉइस सेंटरों के माध्यम से पंजीयन की सुविधा संचालित थी,जो आज सिमट कर 13 जगहों जय स्तंभ चौक,गुढिय़ारी,श्यामनगर सहित अन्य जगहों पर ही सुलभ हैं। जनजागरूकता की कमी से जन्म-मृत्यु पंजीयन के प्रति लोगों का झुकाव घटा है। इसक ी जागरूकता के लिए न तो निगम स्वास्थ्य अमलों के पास फुर्सत है, और न ही यहां से आम लोगों को आसानी से पंजीयन प्रमाण पत्र मिल पातें है। नाम नहीं छापनें की बात पर एक महिला ने बताया कि वे बच्चे के जन्म पंजीयन में नाम की त्रुटि को सुधरवानें उसे पूरे एक माह तक चॉइस सेंटर का चक्कर काटना पड़ा। वहीं यहां पंजीयन के लिए बड़ी औपचारिकता भी पूरी करनी पड़ती है, तब जाकर प्रमाण पत्र मिल पाता है। स्वास्थ्य अमलों का आलम यह है कि शहर में आम लोगों के लिए इन चॉइस सेंटरों की जानकारी उपलब्ध ही नहीं हंंंंै। अधिकारियों को भी चॅाइस सेंटर कि गतिविधि के बारे में जानकारी नहीं हैं। चॉइस सेंटर संचालक डॉ. भग्यलक्ष्मी को अन्य प्रभारों के कारण फुर्सत के समय ही आम लोगों के पंंजीयन का कार्य निपटाती हैं,और स्वास्थ्य अमले की कमी की बात कही जाती है। लम्बे अन्तराल के बाद भी शासन व निगम प्रशासन इन सेंटरों में व्यवस्था व दशा सुधारनें कोई कदम नहीं उठाया है।
13 माह मे 261 विवाह पंजीयन
राजधानी में प्रति वर्ष हजारों की संख्या में विवाह होतें है, किन्तु नगर निगम स्थित 13 चॉइस सेंटरों में 13 माह में मात्र 261 जोडिय़ों का ही पंजीकृत हुएं है। पंजीकरण के प्रयास में यह आकड़ा बेहद चिंता जनक है। शिशु मृत्यु पंजीयन के मामले में भी इस दौरान मात्र 14 आवेदन प्राप्त हुऐ हैं। मातृत्व मृत्यू का आवेदन सिर्फ 4 आवदन दर्ज हुआ है।
०००
एक्सपायरी दवा प्रकरण में दो निलंबित
जगदलपुर,14 मार्च। दंतेवाड़ा जिला अस्पताल में जारी मेगा नेत्र शिविर में एक्सपायरी दवाईयों के वितरण के प्रकरण में जिला प्रशासन ने चार स्वास्थ्य कर्मचारियों पर कार्रवाई कर, दो को निलंबित तथा दो को कारण बताओ नोटिस जारी किया है, वहीं इस कार्रवाई को लेकर स्वास्थ्य कर्मियों ने नाराजगी जताते हुए अपर कलेक्टर को ज्ञापन देकर तीन दिवस के भीतर निलंबित कर्मियों को बहाल करने की मांग की है।
स्वास्थ्य कर्मियों ने अपने बयान में कहा है कि प्रशासन पूरे मामले में शिविर के नोडल अफसरों को बचाते हुए छाटे कर्मचारियों को निशाना बना रहा है। स्वास्थ्य कर्मचारियों ने निलंबित कर्मचारियों को तीन दिवस के भीतर बहाल करने का अल्टीमेटम दिया है। उनकी मांगे नहीं माने जाने की स्थिति में आंदोलन पर जाने की बात कर्मचारियों ने की है। ज्ञात हो कि जिला मुख्यालय में एनएमडीसी एवं जिला प्रशासन के संयुक्त तत्वाधान में 8 मार्च से मेघा नेत्र शिविर का आयोजन किया जा रहा है, जिसमें प्रथम दिन ही नेत्र रोगियों को कालातीत दवाई देने की तैयारी का मामला प्रकाश में आया है। इस प्रकरण को लेकर प्रशासन ने शुक्रवार की शाम कार्रवाई करते हुए जिला अस्पताल के नेत्र सहायक अधिकारी एन के शाक्या तथा फार्मासिस्ट राहुल सोनकर को निलंबित कर दिया है। जबकि इसी मामले में डाक्टर के अप्पाराव व डाक्टर आर एल गंगेश को कारण बताओ नोटिस जारी किया गया है।
000
मार्कफेड प्रकरण : तीन निलंबित
धमतरी,14 मार्च। मार्कफेड में हुए फर्जीवाड़े के मामले में डीएमओ सहित तीन लोगों को निलंबित कर दिया गया है। जबकि 4 राइस मिलरों के खिलाफ अपराध पंजीबद्ध है। इस मामले में अगर पिछले तीन वर्षों के रिकार्ड की जांच होती है तो कई और राईस मिलरों के चेहरे बेनकाब हो सकते हैं।
मार्कफेड के कम्प्यूटर में दर्ज आंकड़े में फेरबदल कर फर्जीवाड़ा करने के मामले में शासन-प्रशासन ने सख्ती से कार्यवाही करते हुए कल 4 राईस मिल पार्वती इंडस्ट्रीज, सुशीला धान प्रक्रिया केन्द्र, ऋषभ राईस प्रोसेसिंग, दिनेश इंडस्ट्रीज के संचालकों एवं अनुबंधकर्ताओं के खिलाफ धारा 420, 467, 468, 471 एवं 34 के तहत अपराध पंजीबद्ध किया है। इस मामले में विवेचना के लिए पुलिस की एक टीम तैयार की गई है। इधर अपराध पंजीबद्ध होने के बाद राईस मिलर भूमिगत हो गये है। वहीं कम्प्यूटर ऑपरेटर को हटा दिया गया है। मार्कफेड ने कार्यवाही के तहत डीएमओ एल.आर. साहू, गोदाम प्रभारी राजेन्द्र सिंग एवं लेखापाल श्री नागर को तत्काल प्रभाव से निलंबित कर दिया है। इनके स्थान पर दुर्ग के डीएमओ श्री सक्सेना को धमतरी डीएमओ बनाया गया है। इसके अलावा श्री चंद्राकर को लेखापाल की जिम्मेदारी सौंपी गई है। कहा जा रहा है कि इस मामले की सूक्ष्मता से जांच की गई तो कई और भी बड़े मामले का पर्दाफाश हो सकता है। यह भी कहा जा रहा है कि कुछ इस तरह के और राईस मिलर है जिन्होंने फर्जी तरीके से एफडीआर एंट्री कराई है।
000
बिना साइकिल लिए भूखी-प्यासी लौटी छात्राएं
महासमुंद,14 मार्च। सरस्वती सायकल योजना अंतर्गत सरकारी शैक्षणिक संस्थानों में नवमी कक्षा में अध्ययनरत अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग की सभी बालिकाओं एवं पिछड़ा वर्ग व सामान्य वर्ग के गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले परिवार की छात्राओं को सायकिल देने के उद्देश्य से कल शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में आमंत्रित हुई सैकड़ों छात्राओं को अपनी पसंद की सायकिल न मिल पाने से मायूस होकर लौटना पड़ा। सरस्वती सायकल योजनांतर्गत विगत तीन मार्च को अपर कलेक्टर की अध्यक्षता में एक बैठक आयोजित कर सायकल की सभी कंपनियों के प्रतिनिधियों को महासमुंद ब्लाक की 12 मार्च को आयोजित मेले में अपनी कंपनी की मॉडल की सायकलों को स्टॉल लगाने के लिए कहा गया था किंतु आयोजित मेले में मात्र दो कंपनियों एसपी एवं सफारी की ही सायकलें उपलब्ध थी बाकी कंपनी एटलस, हीरो, एंग्लो, नवो की सायकलें मेले में छात्रों को नहीं देखने को मिली जिससे छात्राएं निराश हुई और बिना सायकल पसंद किए घर लौट गई। ज्ञात हो कि शुक्रवार मेले में महासमुंद ब्लाक की 19 स्कूलों से 1314 छात्राओं को सायकल पसंद करने के लिए तीन बजे तक आदर्श उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में उपस्थित होने के लिए सभी शाला प्रमुखों को सूचना दी गई थी। मेले में शामिल होने के लिए झलप, खट्टी, बेलसोंडा, गढ़सिवनी, तुरेंगा, भोरिंग, रायतुम, तुमगांव, पटेवा, मुंनगाशेर, बेमचा, नरतोरा, बिरकोनी, अछोला, बावनकेरा, शेर, सिरपुर व छपोराडीह से लगभग सैकड़ों छात्राएं अपने पालकों के साथ सुबह 11 बजे से मेला स्थल पहुंचने लगे लगभग 12 बजे तक किसी भी प्रकार की तैयारी न देख छात्राओं सहित पालक भी परेशान होने लगे। और उनकी यह परेशानी जायज भी थी क्योंकि मेला स्थल में पहुंचने पर उन्हें पता चला कि मेला तीन बजे से आयोजित है। पूछने पर पालकों व छात्राओं ने बताया कि शाला प्रमुखों ने उन्हे बारह बजे तक स्थल पहुंचने कहा था। जिसमें झलप, सिरपुर, गढ़सिवनी, खट्टी की छात्राओं की संख्या बहुतायत थी। सुबह से घर से निकली ये छात्राएं भूखे प्यासे दिन भर परेशान होती रही। लंबे इंतजार के बाद करीब चार बजे एसपी कंपनी की सायकले प्रदर्शित की गई। आधे घंटे बाद सफारी सायकल भी मेले में आ गई परंतु छात्राओं एवं पालकों ने इन सायकलों की गुणवत्ता देख उन्हें रिजेक्ट कर दिया। काफी समय इंतजार करने के बाद जब अन्य ग्रामी कंपनियों की सायकल नहीं पहुंची तो छात्राएं निराश होकर लौटने लगी। कई पालकों से यह भी कहते सुना गया कि शासन ने सायकल देने के नाम पर मजाक किया है। उनका कहना था कि सौ-दो सौ रुपए खर्च कर वे यहां पहुंचे और दिन भर भूखे प्यासे रहे वो अगल। शाम हो जाने के कारण जिस रास्तों पर बस सेवा नहीं थी उन जगहों के लिए छात्राओं को बस स्टैंड व उसके आसपास भटकते देखा गया। जिससे पालक भी आक्रोशित हुए। मेला स्थल पर नामी गिरामी कंपनियों की सायकलें न पहुंचना दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए डीइओ श्रीमती मंजूलता पसीने ने शासन से इस बात को अवगत कराने की बात कही।
000
बिना लायसेंस के ही खून का कारोबार
भिलाई, 14 मार्च। जिलेे में डोनेट ब्लड का धधा बड़ी तेजी से फल-फूल रहा है। आलम यह है कि ज्यादातर नर्सिग होम बिना किसी लाइसेंस के ही खून का कारोबार कर रहे हैं। हैरत की बात है कि सब कुछ जानने के बावजूद संबंधित विभाग को कार्यवाही के लिए लिखित शिकायत का इंतजार है।
विभाग के तमाम दावों के बावजूद जिले में डोनेट ब्लड की गैरकानूनी खरीद-फरोख्त का सिलसिला जारी है। नाको (नेशनल एड्स कंट्रोल आर्गनाइजेशन) की मानें तो दुर्ग- भिलाई के 90 फीसदी नर्सिग होम को इस मामले में नियम-कानून से कोई मतलब नहीं है। तभी तो ये भर्ती मरीजों को जरूरत पडऩे पर किसी ब्लड बैंक से ब्लड लेने के बजाय किसी परिचित या रिश्तेदार का ब्लड अपने यहां ही निकालकर मरीज को चढ़ा रहे हैं। नाको के मुताबिक कायदे से इसके लिए नर्सिग होम को स्वास्थ्य विभाग से अनुमति लेना आवश्यक है। इसके लिए विभाग लाइसेंस देता है। इधर, ड्रग कंट्रोलर ने माना कि ऐसा होना गंभीर बात है। विभाग इस मामले में कार्यवाही करने को तैयार है, बशर्ते इसकी लिखित शिकायत मिले। वैसे जल्द ही समूचे जिले में एक अभियान चलाकर ऐसे नर्सिग होम्स की जांच कराई जाएगी और दोषी लोगों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही होगी। यहां बता दें कि पिछले तीन साल में इस बारे में विभागीय स्तर पर कोई पहल नहीं हुई है।
०००
हाकी खिलाडिय़ों को मिलेगी एस्ट्रो टर्फ की सुविधा
रायपुर,14 मार्च। राजधानी के हॉकी खिलाडिय़ों को एस्ट्रो टर्फ की सुविधा दिलाने की कवायद खेल विभाग ने तेजी से प्रारंभ कर दी है। विभाग की पहल पर जल्द ही अब लोक निर्माण विभाग साइंस कॉलेज में लगने वाले एस्ट्रो टर्फ के लिए टेंडर बुलाने वाला है।
साइंस कॉलेज के मैदान में मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह से अनुमति लेकर एस्ट्रो टर्फ लगाने की तैयारी खेल विभाग कर रहा है। पूर्व में मुख्यमंत्री को घोषणा के अनुरूप कोटा स्टेडियम के साथ नेताजी स्टेडियम में एस्ट्रो टर्फ लगाना था, लेकिन दोनों स्थानों पर परेशानी होने के कारण एक नई योजना बनाकर एस्ट्रो टर्फ साइंस कॉलेज में लगाने की मंजूरी मुख्यमंत्री से ली गई है। इस मंजूरी के बाद खेल विभाग की पहल पर लोक निर्माण विभाग ने साइंस कॉलेज में उस स्थान का निरीक्षण कर लिया है जहां पर एस्ट्रो टर्फ लगना है। अब लोक निर्माण विभाग से इसकी पूरी योजना बनाकर टेंडर बुलाने की तैयारी कर ली है। खेल संचालक जीपी सिंह ने बताया कि हमारे विभाग ने अपना काम कर दिया है और लोकनिर्माण विभाग द्वारा जल्द टेंडर आमंत्रित करके पहले स्टेडियम बनाए जाएगा इसके बाद एस्ट्रो टफ लगाया जाएगा।
000

गुरुवार, 11 मार्च 2010

महिला क्यो नहीं हो सकती नेता प्रतिपक्ष

दुर्ग। नगर निगम में नेता प्रतिपक्ष के चयन को लेकर शहर कांग्रेस पूरी तरह ठंडी पडी हुई है। पिछले दिनों कांग्रेस का नेता चुनने के लिए बुलाई गई बैठक का विषय बदलकर पार्टी ने यह जाहिर कर दिया है कि वह कुछ करने की स्थिति में नहीं है। पार्षदों को यह समझ नहीं आ रहा है कि आखिर उन्हें अलग-थलग क्यों रखा गया है और नेता प्रतिपक्ष का चयन क्यों नहीं किया जा रहा है?
नगर निगम चुनाव के नतीजे आए 2 महीने से ज्यादा वक्त बीत चुका है और इस दौरान भाजपा का जहां महापौर बना, वहीं नगर निगम में भाजपा पार्षदों का बहुमत भी आया। भाजपा ने महापौर परिषद का गठन भी कर लिया और परिषद के सभी विभाग अपने-अपने काम में लग गए हैं। किन्तु इन कामों की मानिटरिंग करने के लिए कांग्रेस अब तक नेता प्रतिपक्ष नहीं बना पाई है। शहर में पानी का गम्भीर संकट है। जगह-जगह गंदगी और कचरे का जमाव है, लोगों के नगर निगम से संबधित छोटे-छोटे काम भी नहीं हो पा रहे हैं। बावजूद इसके शहर कांग्रेस के नेता हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। शहर कांग्रेस के अध्यक्ष अरूण वोरा लगातार तीन बार विधानसभा चुनाव हार चुके हैं और इसीलिए उन्हें हर कोई गद्दार नजर आता है। पार्टी के लोगों का मानना है कि वोरा, किसी को आगे बढ़ते नहीं देखना चाहते। वर्तमान में पूर्व महापौर रघुनाथ वर्मा के अलावा धाकड़ माने जाने वाले पार्षद देवकुमार जंघेल, अलताफ अहमद और सजय कोहले नेता प्रतिपक्ष की दौड़ में हैं। जबकि महिलाओं में रागिनीदेवी सोनी, सोनम नारायणी और कन्या ढीमर के नाम सामने आ रहे हैं।
एक ओर जहां कांग्रेस महिला आरक्षण विधेयक पारित हो जाने को अपनी उपलब्धि बता रही है तो दूसरी ओर उसे महिलाओं को सामने लाने से गुरेज है। सवाल है कि आखिर नेता प्रतिपक्ष के पद पर कोई महिला क्यों नहीं बैठ सकती? कांग्रेस के जानकार सूत्रों की मानें तो शहर कांग्रेस पर कब्जा जमाए रखने के लिए अरूण वोरा नित नए खेल खेल रहे हैं। संगठनात्मक चुनाव की प्रक्रिया जारी है और इस हेतु पर्यवेक्षक भी भेजे गए हैं। बावजूद इसके अरूण वोरा ने अपने स्थानीय समर्थकों को पर्यवेक्षक बना दिया है। जबकि संगठनात्मक चुनाव उन्हीं पर्यवेक्षकों द्वारा सम्पन्न कराए जाने हैं, जिसको शीर्ष स्तर से भेजा गया है। कांग्रेसियों का आरोप है कि अरूण वोरा अपने पिता की वजह से लगातार मनमानी कर रहे हैं। उनकी मनमानियों का ही नतीजा है कि पार्टी लगातार हाशिए पर जा रही है।
एक कांग्रेस पार्षद के मुताबिक, जब सभी पार्षदों ने मिलजुलकर अरूण वोरा को नेता प्रतिपक्ष चुनने के लिए अधिकृत कर दिया है तो फिर वे पार्षदों से अलग-अलग बात करने जैसी बातें कहकर नौटंकी क्यों कर रहे हैं? इस पार्षद के मुताबिक, सबको मालूम है कि जो भी निर्णय लेना है, वोरा को ही लेना है। बावजूद इसके वे राजनीति के खेल दिखा रहे हैं। शहर कांग्रेस के एक नेता के मुताबिक, अरूण वोरा अब तक खुद कुछ नहीं कर पाए। युवक कांग्रेस का अध्यक्ष रहते उन्होंने कुछ नहीं किया। विधायक बने तब भी कुछ नहीं कर पाए। लगातार चुनाव हारे फिर भी युवा आयोग के अध्यक्ष बना दिए गए। लालबत्ती मिली तब भी वे अपना दायरा नहीं बढ़ा पाए और अब शहर कांग्रेस के अध्यक्ष बन बैठे हैं और निर्वाचित पार्षदों से लेकर संगठन से जुड़े लोगों को निराश कर रहे हैं।

पर्यटन विभाग भी कमाई के मूड़ में

रायपुर। प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर छत्तीसगढ़ में भले ही पर्यटन विभाग कुछ कर नहीं पा रहा हो और इस मद के अरबों रूपए भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ रहे हों, किन्तु लगता है अब यह विभाग भी कमाई के मूड़ में आ गया है। उसने अपने होटलों, मोटल और रेस्ट हाउस को निजी हाथों में सौंपने का मन बना लिया है। सब कुछ ठीक रहा तो इस महीने के अंत तक पर्यटन मंडल के 33 होटल, मोटल व रेस्ट हाउस ठेके की भेंट चढ़ जाएंगे।
नैसर्गिक सौदर्य के लिहाज से छत्तीसगढ़ अद्वितीय है, लेकिन राज्य का पर्यटन विभाग इस सौंदर्य का देश और दुनिया को रसपान कराने में सफल नहीं हो पा रहा है। बस्तर से लेकर सरगुजा तक पूरे राज्य में प्राकृतिक सौंदर्य बिखरा पड़ा है, लेकिन सरकार के पास इसके लिए कोई योजना नहीं है। राज्य के अभ्यारण्य लावारिसों की तरह हैं, यहां जंगली जानवर लगातार कम हो रहे हैं। वन्य पर्यटन के लिए कोई विशेष योजना नहीं है। वन्य पशुओं का अवैध रूप से हो रहा शिकार तो सरकार रोक नहीं पा रही है, बल्कि जंगलों के सफाए की ओर भी उसका ध्यान नहीं है। खनिज सम्पदा का दोहन और जंगलों का सफाया हो रहा है, जिसके भयावह नतीजे भी सामने आ रहे हैं। हथियों का कहर बरपाना, वन्य जीवों का गांवों और शहरों की ओर पलायन जैसे कारणों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया। नतीजतन छत्तीसगढ़ का पूरा पर्यटन चौपट होने की कगार पर है। लेकिन बजाए इस ओर ध्यान देने के, सरकार और पर्यटन मंडल रूपए कमाने के तरीके निकाल रहा है। यह साबित करने की कुचेष्टा की जा रही है कि राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में बनाए गए होटल, और मोटल सरकार के लिए सफेद हाथी साबित हो रहे है। यही वजह है कि होटल-मोटल व रेस्टहाउसों को ठेके पर देने की तैयारी की जा रही है। करोड़ों रुपए खर्च कर बनाए गए सरकारी होटल, मोटल और रेस्ट हाउस अब निजी हाथों में जा रहे है। इसके लिए बाकायदा योजना बना ली गई है। जिसकी पहली प्रक्रिया 12 मार्च को शुरू होगी और 27 मार्च तक पर्यटन मंडल की 33 होटल, मोटल व रेस्ट हाउस को ठेके पर सौंप दिया जाएगा।
छत्तीसगढ़ पर्यटन मंडल ने मैनेजमेंट कांट्रेक्ट बेस में पहले चरण पर प्री-बिड कांफ्रेंस 15 मार्च को दोपहर तीन बजे मुख्यालय में आयोजित की गई है। इच्छुक लोगों को फार्म भी जारी कर दिया गया है। फार्म 12 मार्च को शाम पांच बजे तक जमा करने की ताकीद भी की गई है। दूसरे चरण यानी की फाइनेंशियल बिड 27 मार्च को शाम पांच बजे खोली जाएगी। यह सारी प्रक्रिया दुरस्तगी से की गई है पर फार्म की उपलब्धता सीमित हाथों में ही है।
नवनिर्मित और आशीशान होटल मोटल के कुल 12 समूह तैयार किए गए हैं। जिसमें कुल मिलाकर 33 स्थानों की होटल, रेस्ट हाउस व मोटल हैं। इसमें रायपुर ग्रुप की टूरिस्ट मोटल केंद्री, टूरिस्ट मोटल भाटागांव रेस्ट हाउस भाठागांव, कांकेर ग्रुप की नथिया नवागांव मोटल, टूरिस्ट मोटल कांकेर, टूरिस्ट मोटल कोंडागांव जगदलपुर की टूरिस्ट मोटल आसाना, टूरिस्ट मोटल तीरथगढ़, टूरिस्ट मोटल हाराम दंतेवाड़ा, मोटल खपरी दुर्ग, मोटल तुमड़ीबोड़ राजनांदगांव, तांदुला रेस्ट हाउस दुर्ग, कवर्धा मोटल, भोरमदेव रेस्ट हाउस कबीरधाम, मोटल कांपा महासमुंद, लखोली रेस्ट हाउस रायपुर, बालार अर्जुनी रेस्ट हाउस रायपुर, टूरिस्ट मोटल रायगढ़, कुनकुरी रेस्ट हाउस रायगढ़, खुमार पाकुट रेस्ट हाउस रायगढ़ मोटल सारागांव बिलासपुर, धरमपुरा रेस्ट हाउस बिलासपुर, गोंडख़ाम्ही रेस्ट हाउस बिलासपुर, खूंटाघाट रेस्ट हाउस बिलासपुर, खुडिय़ा रेस्ट हाउस बिलासपुर, टूरिस्ट मोटल जांजगीर-चांपा, मोटल छादिराम अंबिकापुर सरगुजा, मोटल चिरगुड़ा कोरिया, श्याम घुनघुट्टा रेस्ट हाउस अंबिकापुर, टूरिस्ट मोटल कोनकोना कोरबा, माचाडोली रेस्ट हाउस कोरबा टूरिस्ट मोटल राजिम, रेस्ट हाउस कुकदा गरियाबंद को ठेके पर दिया जाना है।

महिला आरक्षण विधेयक के बाद सम्पत्ति की घोषणा डाके पर डाका

रायपुर। महिला विधेयक से पहले से ही चिंतित छत्तीसगढ़ के मंत्रियों, विधायकों को अब एक नई चिंता सताने लगी है। यह चिंता सम्पत्ति की घोषणा को लेकर है। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों के साथ ही भाजपा विधायकों की सम्पत्ति हर साल उजागर करने का ऐलान किया है और इसके सुर में सुर मिलाया है कांग्रेस ने। लेकिन भाजपा और कांग्रेस के विधायकों के माथे पर इस घोषणा से चिंता की रेखाएं खिंच आई है। इधर, आईएएस, आईपीएस और आईएफएस अफसरों की सम्पत्तियों का ब्यौरा इंटरनेट पर जारी करने की सरकार की घोषणा से अफसरों के होश उड़े हुए हैं।
एक सामान्य कार्यकर्ता से नेता बनने और उसके बाद पार्टी का टिकट हासिल कर चुनाव लड़ऩे, लाखों रूपए खर्च करने के बाद चुनाव जीतने वाले नेता सम्पत्ति का ब्यौरा देने के थोपे गए निर्णय से काफी चिंतित हैं। उन्हें लगता है कि इस तरह की घोषणाओं से कुछ होने वाला नहीं है। एक विधायक के मुताबिक, इस घोषणा के चलते कुछ तकनीकी दिक्कतें पेश आ सकती है। यह दिक्कतें ऐसी हैं, जिनका कोई जवाब विधायक या मंत्री के पास नहीं होता। एक संसदीय सचिव की मानें तो पद पर आते ही आवक का पता नहीं चल पाता। किसी का कोई काम करवा दिया या डूबते हुए को पार लगा देने से ही काफी आवक हो जाती है। यह काम करवाने के ऐवज में लिया गया पारिश्रमिक होता है। फिर शासकीय कार्यों की कमीशन का कोई क्या हिसाब दे सकता है?
छत्तीसगढ़ की 90 सदस्यीय विधानसभा में महिला आरक्षण विधेयक पारित होने के बाद हालात पूरी तरह बदलने वाले हैं। यदि विधेयक पारित हो जाता है, (जो कि लगभग तय है) तो राज्य में कुल 30 महिलाएं विधायक होंगी। इतना ही नहीं, छत्तीसगढ़ की लोकसभा की 11 में से 4 सीटें महिलाओं के खाते में जा रही हैं। यह ऐसा मसला है, जिसे मंत्री, विधायक, नेता कोई पचा नहीं पा रहे हैं। इन नेताओं का लगता है कि यह उनके अधिकार पर डाके की तरह है। हालांकि पार्टी की नीतियों के तहत फिलहाल उन्होंने चुप्पी साध रखी है। अपना क्षेत्र आरक्षण की चपेट में आने की स्थिति के मद्देनजर वे अपनी पत्नी, पुत्री या रिश्तेदार के नाम पर विचार कर रही रहे थे कि अब उन पर एक और ऑफत थोप दी गई। दरअसल, विधानसभा में सरकार को घेरने से लिहाज से कांग्रेस विधायक धर्मजीत सिंह ने एक अफसर के पास मिली 400 करोड़ से अधिक की सम्पत्ति पर सवाल उठाया था। जिसके जवाब में मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने न केवल अफसरों बल्कि मंत्रियों और विधायकों की सम्पत्ति सार्वजनिक करने की वकालत की। उन्होंने इस दौरान यहां तक कह दिया कि सार्वजनिक जीवन में सुचिता और ईमानदारी के लिए जरूरी है कि जनता को उनके बारे में तमाम जानकारी हो। इसके लिए यह आवश्यक है कि मंत्री और विधायक अपनी-अपनी सम्पत्तियों का ब्यौरा दें। उन्होंने अपनी ओर से अपने समेत मंत्रियों और भाजपा के विधायकों की सम्पत्तियों का ब्यौरा हर साल देने का ऐलान किया। नेता प्रतिपक्ष रविन्द्र चौबे ने इसका स्वागत किया और हर साल बजट सत्र में कांग्रेस विधायकों द्वारा सम्पत्ति का ब्यौरा देने की बात कही।
मुख्यमंत्री के मुताबिक. यदि अफसरों की सम्पत्ति का ब्यौरा वेबसाइट पर उपलब्ध होगा तो लोगों को सूचना कानून के तहत बार-बार जानकारियां मांगने की जरूरत नहीं होगी। उन्होंने स्वीकार किया कि 31 जनवरी तक सम्पत्ति की घोषणा का स्पष्ट नियम होने के बावजूद कई अफसरों ने अपनी सम्पत्ति की जानकारी नही दी है। इनमें 2 आईएएस, 18 आईपीएस और 69 भारतीय वन सेना के अधिकारी हैं।