रविवार, 16 मई 2010

एक और हालात - 2

हम लोग उसे भूत कहते थे। नाम था - भूतनाथ। मजाक-मजाक में उसके लिए चुटकुला भी बना लिया था कि ...भूत आ जाएगा। दरअसल, जब भी कुछ खाने (या पीने) बैठो तो वह अचानक ही आ धमकता था और बिना कुछ कहें, पूछे ही हमारी बैठकी का हिस्सा बन जाता था। खाने-पीने का सारा कार्यक्रम दफ्तर में शाम को छुट्टी के बाद शुरू होता था। भूत की पत्नी गांव में थी। वह यहां शहर में अपनी बूढ़ी मां के साथ ही था। किसी प्रायवेट कंपनी में काम करता था। कहते हैं कि उसकी बूढ़ी मां टोनही थी। उससे सब डरते थे। हालांकि मुझे इसमें कोई सच्चाई कभी नजर नहीं आई। कभी-कभी हम तीन-चार लोग चंदेबाजी कर मुर्गा वगैरह भी लाते थे, जिसे भूत ही अपने घर में पकाता था। चावल वह अपनी ओर से पका लाता था। दफ्तर से ठीक बाजू में उसका झोपड़ीनुमा घर आज भी है। पर आज न भूत है, न उसकी बूढ़ी माँ। भूत की मौत को 5 साल गुजर गए हैं, जबकि बुढ़ी माई दो साल पहले चल बसी। घर पर भूत की पत्नी के रिश्तेदारों का कब्जा हो गया है।

अखबार से जुड़े लोगों को यह भलीभांति मालूम होगा कि दीपावली का त्यौहार अखबारनवीसों, खासकर अखबार मालिकों के लिए खूब लक्ष्मी लेकर आता है। हर साल दीवाली से हफ्ते-पंद्रह दिन पहले ही प्रेस में विज्ञापनों का काम शुरू होता है और दीवाली को 20-30 पृष्ठों का अखबार निकाला जाता है, जिसमें पढऩे को तो कुछ नहीं होता, पर भरपूर विज्ञापन जरूर होते हैं। अखबारों को यही विज्ञापन चलाते हैं, पर दीपावली में अखबार मालिकों के लिए जमकर धन बरसता है। ...वह यही दीवाली के आसपास का वक्त था, जब हम लोग शाम से लेकर देर रात तक विज्ञापनों को कम्प्यूटर पर तैयार करवाते और प्रूफरीडिंग करते थे। क्योंकि यह अतिरिक्त काम होता, इसलिए रोजाना व्हिस्की की एक बोतल जरूर आती। ..और हाँ, खाना तो रोज भूत के घर पर बनता ही था। हम चार-पांच लोग जमकर पीते और खाते। मौज-मस्ती तो खैर होती ही।
वह ठंडक बरसाती उजली रात थी। करीब 10 बज रहे थे। पूरा मोहल्ला खामोश होते आ गया था और पास की बड़ी नाली से मेढ़क के टर्राने की आवाज आ रही थी। भूत ने दूसरा पैग गले से उतारने के बाद बताया कि उसे पीलिया हो गया है और पिछले कई दिनों से वह काम पर नहीं गया है। पीलिया की खबर हमारे लिए नई थी। इस पर वह पिछले कई दिनों से हमारे साथ शराब और मांस का सेवन कर रहा था। समझाईश के बाद भी वह नहीं माना तो हम सबने तय किया कि अब न उससे खाना बनवाना है और न ही उसे शराब ही पिलानी है। अगले दो दिनों तक वह इसी लालसा में आता रहा कि उसे खाने-पीने को मिलेगा, लेकिन हमने उसे साफ मना कर दिया। हालांकि उसके मुंह से देसी शराब का भभका बराबर उठता रहा। दो-तीन दिनों के बाद शाम को पता चला कि उसे सरकारी अस्पताल में भर्ती करा दिया गया है। ...और उसके अगले ही दिन उसकी मौत हो गई। रात करीब 8 बजे थे, जब भूत की बूढ़ी मां अपने दोनों हाथों में लाठी पकड़े दफ्तर के भीतर तक चली आई। उसकी आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे। उसी ने बताया कि उसका बेटा अब इस दुनिया में नहीं रहा। पास ही एक बदनाम महिला डाक्टर भी रहती थी। इस डाक्टर की दो बोटियां हैं, लेकिन उन्हें कभी किसी ने नहीं देखा। एक बेटा भी है जो विदेश में रहता है। पति की मौत काफी पहले हो चुकी थी। कुल मिलाकर डाक्टर तीन मंजिला मकान में अकेली ही रहती थी। जब कभी उसे कोई छोटा-मोटा काम करवाना होता, भूतनाथ को ही याद किया जाता था।
...तो भूतनाथ की मौत की खबर देने जब बूढ़ी मां बड़ी मुश्किल से उस डाक्टर के घर पहुंची तो करीब 20 मिनट तक उसके घर का दरवाजा नहीं खुला। डाक्टर नीचे डिस्पेंसरी चलातीं थीं और प्रथम तल पर उसका रहना होता था। कहते हैं कि महिलाओं की विशेषज्ञ यह डाक्टर सैकड़ों अजन्में बच्चों की मौत की वजह रही हैं। और कि शहर में उसकी पहचान गर्भपात विशेषज्ञ के रूप में रही है। ...और कि ऐसा कई बार हुआ जब आसपास के इलाकों में हथेली में समा जाने वाले मृत नवजात मिले। खैर, बीस मिनट के बाद जब दरवाजा खुला तो बिना कोई जाने-समझे सबसे पहले तो डाक्टर ने बुढिय़ा को जमकर गालियां दीं। नींद खराब करने के लिए उसे जमकर कोसा। इस दौरान बुढिय़ा पूरे समय जोर-जोर से रोती रही।

महिला डाक्टर ने जब अपनी पूरी भड़ास निकाल ली तो जोरदार आवाज में पूछा, - रो क्यों रही है.. कोई मर गया है क्या? बुढिय़ा ने उसी तरह रोते हुए बताया - मोर बेटा मर गे....।

...तो मैं क्या करूं...? मेरे पास आएगी तो जिंदा हो जाएगा क्या...। - डाक्टर से इतनी बेरूखी की उम्मीद हममे से किसी ने नहीं किसी की थी।

बताए ला आए हव...- बूढिय़ा ने रोते हुए कहा तो डाक्टर का जवाब था - बता दिया न.. अब जा, चल निकल यहां से...। उसने हाथ की उंगली से ईशारा करते हुए कहा - अब मत आना मेरे पास। - इतना कहने के बाद डाक्टर ने दरवाजा बंद कर लिया। बुढिय़ा रोती हुई अपनी झोपड़ी में आ गई। पूरी तरह अकेली, एक सुनसान घर में, जहां अब उसका इकलौता बेटा भी नहीं था।

दफ्तर के सभी साथियों का मन खराब हो चुका था। किसी की काम करने की इच्छा नहीं हुई। हम सब दफ्तर बंद कर अपने-अपने घर रवाना हो गए। ..पर रात का अधिकांश वक्त करवटे बदलते हुए बीता। सुबह 10 बजे के आसपास जब दफ्तर पहुंचा तो भूतनाथ का शव लाने की तैयारी थी। झोपड़ी के बाहर बांस की अर्थी सजाई जा रही थी। थोड़ी ही देर में सरकारी एंबुलेंस में भूत का शव लाया गया। और कुछ ही देर बाद उसकी अंतिम यात्रा भी निकल गई। इस दौरान पड़ोस की महिला डाक्टर के यहां मरीजों की भीड़ लगी थी। वह अपने मरीजों में व्यस्त थी और इधर, भूत की बूढ़ी मां के आंसू रोके नहीं रूक रहे थे।

(मित्रों, इस कहानी के तीनों प्रमुख पात्रों, भूतनाथ, उसकी बूढ़ी मां और महिला डाक्टर की मौत हो चुकी है। भूतनाथ की मौत के तीन साल बाद उसकी बूढ़ी मां की गांव में मौत हो गई। जबकि डाक्टर ने अभी पिछले साल ही दम तोड़ा।)