शनिवार, 24 अप्रैल 2010

शहरों की ओर नक्सली

- प्रभात अग्रवाल -
बस्तर में बल के बढ़ते दबाव के चलते नक्सली शहरों की ओर पलायन करने लगे हैं। इस तरह की मिल रही गोपनीय सूचनाओं के बाद नक्सल प्रभावित जिलों के आसपास के इलाकों को सतर्क कर दिया गया है। सीमाओं पर चौकसी बरतने को भी कहा गया है। बस्तर के ताड़मेटला घटनाक्रम के बाद एक ओर जहां देशभर में लोगों ने गम्भीर प्रतिक्रिया जताई है तो दूसरी ओर राज्य और केन्द्र सरकार भी अब और ज्यादा सख्ती के मूड़ में है। हालातों को भांपकर नक्सलियों ने भी पैतरा बदल दिया है और अब वे शहरों की ओर रूख कर रहे हैं।
नक्सलियों द्वारा बस्तर में 76 जवानों की नृशंस हत्या के बाद सीआरपीएफ के जवान बीहड़ों में जाने से परहेज कर रहे हैं। हाल ही में यह खबर भी आई थी कि इन जवानों को खाने और साफ पानी की किल्लत से जूझना पड़ रहा है। मौसम की मार और मच्छरों की वजह से जवान पहले ही परेशान रहे हैं, वहीं नक्सलियों के हमलों की आशंका भी बराबर बनी रहती है। इस तरह की तमाम दिक्कतों के बाद अब केन्द्र और राज्य की सरकार मिलकर नए सिरे से योजनाएं बनाने और उसे मूर्त रूप देने में जुट गए हैं। लेकिन एक बात पूरी तरह से साफ हो गई है कि नक्सलियों के खिलाफ सेना और वायुसेना का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा। दरअसल, इसके पीछे अपने कई कारण हैं। यदि सेना को बस्तर में तैनात किया जाता है तो पूरा बस्तर सैन्य शासन के दायरे में आ जाएगा और इस पूरे संभाग में सेना की मर्जी के बिना कोई काम नहीं हो पाएगा। इससे बस्तर के विकास और वहां के जनजीवन पर भी असर पडऩे की संभावना है, वहीं सेना के कोप का शिकार उन आदिवासियों को होना पड़ेगा, जो नक्सलियों के भय की वजह से जाने-अनजाने उन्हें प्रश्रय या किसी न किसी तरह का सहयोग करते रहे हैं। इसलिए अब नए सिरे से नई रणनीति के तहत फूंक-फूंककर कदम धरने की जरूरत है।
इधर, ताड़मेटला घटना के बाद जवानों की हौसला अफजाई के लिए डीजीपी विश्वरंजन ने पत्र लिखा है। अपने पत्र में उन्होंने ताड़मेटला घटना से सबक लेने और भविष्य में सर्चिंग अभियान के दौरान सावधानी बरतने की बात कही है। एक ओर जहां केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम् तीन साल के भीतर नक्सलियों के खात्मे की बात कह रहे हैं तो मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह दो साल में छत्तीसगढ़ को नक्सलियों से मुक्त करने का दावा कर रहे हैं। इस तरह की बातों और दावों का जवाब नक्सली अपने प्रचलित तरीके से ही दे रहे हैं। ताड़मेटला घटना की जांच करने पहुंचे केन्द्रीय दल पर नक्सलियों ने गोलियां बरसाईं तो बस्तर के डिलमिली में जिस तरह उन्होंने रेल पटरियां उखाड़कर मालगाड़ी के 13 डिब्बे उतार दिए, उससे रेल यातायात बुरी तरह प्रभावित हुआ और करोड़ों रूपयों का नुकसान भी हुआ। वास्तव में, जब-जब नक्सलियों के खात्मे जैसे बयान आते हैं, वामपंथी उग्रवादी कोई न कोई बड़ी घटना को अंजाम देते हैं। इसलिए राजनेताओं को किसी तरह का बयान देने से पूर्व सावधानी बरतना भी जरूरी है। मालगाड़ी की पटरियां उतारकर नक्सलियों ने यह स्पष्ट संकेत दिया है कि उनकी गतिविधियों पर विराम नहीं लगा है। ....और इन सबके बाद अब नक्सलियों के शहरी क्षेत्रों में कूच करने की खबरें भयभीत करने वाली हैं। कुछ अरसा पहले राजधानी रायपुर और भिलाई क्षेत्र से कई बड़े नक्सली समर्थकों को असलहे के साथ गिरफ्तार किया गया। तब पहली बार यह पता चला कि नक्सली सिर्फ बीहड़ों ही नहीं, शहरों में भी काम कर रहे हैं।
फिलहाल बस्तर के लिए एक नई खबर सामने आई है कि वहां जनगणना का कार्य नहीं हो पाएगा। नक्सली आतंक के चलते यह संभव भी नहीं दिख रहा है। इसलिए प्रशासन ने वहां जनगणना के लिए कोई नया उपाय सुझाने संबंधी पत्र लिखा है। लेकिन बस्तर जैसे जटिल और विस्तृत क्षेत्र में कोई नया उपाय काम करेगा, इस बात की संभावना कम ही है। दरअसल, नक्सलियों के भय से मतगणना कर्मी गांवों में जाना नहीं चाहते। नतीजतन बस्तर के सभी 4 जिलों में यहब कार्य पहले से ही ठंड़ा पड़ा हुआ है। इधर, कांग्रेस ने सुरक्षा बलों में पारस्परिक तालमेल के लिए राजभवन में नोडल अफसर की नियुक्ति का सुझाव दिया है। राज्यपाल से चर्चा करने पहुंचे कांग्रेसियों का कहना था कि प्रत्येक नक्सली वारदात के बाद सरकार रणनीतिक चूक का रटा-रटाया जवाब देती है और नक्सलियों को मुंहतोड़ जवाब देने की बात कही जाती है, लेकिन आज तक ऐसा हो नहीं पाया है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष धनेन्द साहू ने कहा कि बस्तर में जनजीवन सामान्य नहीं है। आदिवासियों की खेती-बाड़ी चौपट हो गई है। हाट-बाजार बंद पड़े हैं। आदिवासी वनोपज नहीं बेच पा रहे हैं। रोजगार गारंटी योजना समेत तमाम सरकारी कामकाज बंद पड़े हैं। नेता प्रतिपक्ष रविन्द्र चौबे का कहना था कि नक्सल समस्या पर प्राथमिकता के आधार पर ध्यान देने की जरूरत है।
                                             नोट : लेखक राष्ट्रीय साप्ताहिक विदर्भ चंडिका के छत्तीसगढ़ ब्यूरो प्रमुख हैं।

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

शह से पहले मिली मात

बैस का खेला पिछड़ा वर्ग कार्ड, भुनाया रमन ने

- नरेश सोनी -

छत्तीसगढ़ में निगम, मंडल और आयोगों में नियुक्तियों का सिलसिला जल्द ही शुरू होने जा रहा है। इसके लिए कई नाम तय कर लिए गए हैं जबकि कई अन्य नामों पर अंतिम मुहर अभी लगनी है। राज्य में आदिवासी समाज की लॉबिंग के बाद जिस तरह से सांसद रमेश बैस ने पिछड़ा वर्ग की वकालत करते हुए प्रदेश भाजपाध्यक्ष पद के लिए दावा ठोका, उसके दो दिनों बाद ही पिछड़ा वर्ग के एक विधायक का नाम मंत्री पद के लिए तय कर लिया गया। रमन सरकार के तेरहवें मंत्री दुर्ग जिले के नवागढ़ से विधायक दयालदास बघेल होंगे। दरअसल, बघेल के जरिए मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने न केवल पिछड़ा वर्ग को साधने की कोशिश की है, बल्कि बैस की लगाई आग पर भी काबू पाने की चेष्टा की है।
उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ को आदिवासी राज्य बताए जाने पर सांसद रमेश बैस ने ऐतराज किया था। उनका कहना था कि पिछड़ा वर्ग की राज्य में तादाद 52 फीसदी है जबकि आदिवासी महज 12 फीसदी ही हैं। ऐसे में यह राज्य आदिवासी कैसे हो गया? शायद इसीलिए बैस ने भाजपा कोरग्रुप की हुई बैठक में प्रदेश अध्यक्ष के लिए अपना दावा ठोंक दिया। बैस, छत्तीसगढ़ भाजपा के अध्यक्ष बन पाते हैं, या नहीं यह दीगर बात है - पर बैस के के शह देने और खुद ही मात खाने के मसले पर काफी कुछ कहा जा सकता है। एक तीर से कई शिकार करने में माहिर सांसद रमेश बैस की निगाहें लम्बे समय से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रही है, लेकिन यह उनका दुर्भाग्य है कि वे कुछ कर नहीं पाए। कई बार लॉबिंग की खबरें भी आई पर कोई नतीजा नहीं निकल पाया। मजेदार बात यह है कि कोरग्रुप की बैठक होते तक किसी को मालूम भी नहीं था कि बैस ऐसा कोई दावा भी कर सकते हैं। उनके दावों ने दरअसल, कोरग्रुप के सदस्यों  को चकित कर दिया। इस बैठक से पहले तक आदिवासी नेता व सांसद मुरालीलाल सिंह की दावेदारी को पक्का माना जा रहा था और इसी कोरग्रुप की बैठक में उनके नाम पर अंतिम मुहर भी लगनी थी। किन्तु ऐन वक्त पर रमेश बैस द्वारा स्वयं को अध्यक्ष पद के लिए प्रोजेक्ट किए जाने और पिछड़ा वर्ग की वकालत करने से छत्तीसगढ़ की राजनीति में एक बार फिर उठापटक के संकेत मिलने लगे। गौरतलब है कि राज्य के आदिवासी नेता समय-समय पर लामबंद होकर सत्ता के शीर्ष पदों पर दावेदारी करते रहे हैं। राजधानी रायपुर में कुछ समय पूर्व राज्यभर के आदिवासियों ने रैली निकालकर ताकत दिखाई थी। इस रैली में सभी दलों के आदिवासी नेता शामिल हुए और मुख्यमंत्री और राज्यपाल जैसे पदों पर दावा जताया गया था। एक बार फिर देशभर के आदिवासी लामबंद होने जा रहे हैं। यह पिछड़ों के लिए खतरे की घंटी भी है क्योंकि इस वर्ग के साथ सत्ता और संगठन में कभी न्याय नहीं हुआ। इसलिए इस वर्ग के नाम पर ही सही, बैस ने अपना कार्ड तो खेल दिया। पर मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह भी कच्चे खिलाड़ी नहीं हैं। बैस के इरादों को भांपकर उन्होंने करीब सवा सालों से खाली पड़े तेरहवें मंत्री के पद के लिए दयालदास बघेल के  नाम पर मुहर लगा दी। इससे पहले कि पिछड़ा वर्ग की कोई नई मुहिम शुरू हो पाती, राजनीति के माहिर खिलाड़ी की तरह मुख्यमंत्री डॉ. सिंह ने पिछड़ा वर्ग और वह भी बैस की ही बिरादरी के नेता को आगे बढ़ाकर खुद को मिलने वाली शह से पहले ही सामने वाले को मात दे दी।
राज्य में भाजपा को बहुमत मिलने के बाद जिन लोगों के नाम मुख्यमंत्री पद के लिए प्रमुखता से लिए जा रहे थे, उनमें एक रमेश बैस भी थे। लेकिन क्योंकि डॉ. रमन सिंह ने केन्द्रीय मंत्री का पद छोड़कर प्रदेश भाजपाध्यक्ष की कमान संभाली थी, इसलिए पार्टी की नजरों में रमन सिंह का वजन ज्यादा था। इससे पहले अजीत जोगी ने आदिवासी कार्ड खेला था और इसी कार्ड के दम पर वे मुख्यमंत्री बने। स्वयं को आदिवासी बताने और आदिवासी वर्ग के प्रति उनके लगाव ने इस वर्ग को छत्तीसगढ़ में काफी सशक्त बना दिया। नतीजतन डॉ. रमन सिंह के मुख्यमंत्री बनने के बाद आदिवासी वर्ग को जरूरत से ज्यादा महत्व दिया गया, ताकि पूरा आदिवासी समुदाय कांग्रेस की बपौती बनकर न रह जाए। संगठन की कमान एक आदिवासी को सौंपी गई तो मंत्रिमंडल में भी आदिवासी विधायकों को पर्याप्त जगह मिली। इसके चलते राज्य के पिछड़ा वर्ग के नेता हाशिए पर चले गए। राज्य में आदिवासी वर्ग इसलिए भी सुर्खियों में रहा क्योंकि बस्तर में नक्सलियों की आमद का खामियाजा इन्हीं आदिवासियों ने भोगा। बात सिर्फ इतनी ही नहीं है। भाजपा को राज्य में दोनों बार सत्ता में लाने में आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों की बड़ी भूमिका रही है। यह बात अलग है कि छत्तीसगढ़ से कांग्रेस के इकलौते सांसद चरणदास महंत ने लोकसभा में नक्सलियों से सांठगांठ के मसले पर भाजपा की खूब भद्द पीटी।
पर बैस की मंशा कुछ और ही दिखाई पड़ती है। कहीं न कहीं वे संगठन के जरिए छत्तीसगढ़ की सत्ता के केन्द्र तक पहुंचने की राह तलाश रहे हैं। हालांकि अभी विधानसभा चुनाव को करीब काफी वक्त है पर यदि वे प्रदेश अध्यक्ष बन जाते हैं तो संगठन की ताकत के बल पर आसान राह भी बना सकते हैं। दिल्ली में बैठे कई वरिष्ठ नेता उनका साथ दे रहे हैं। जाहिर है कि वे पिछड़ों के सर्वमान्य नेता बनने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन उनकी इन कोशिशों को रमन ने पलीता लगा दिया है। पिछड़ा वर्ग को प्रतिनिधित्व देकर उन्होंने इस पूरे समाज को तो साधने की कोशिश की ही है, साथ ही बैस को भी एक तरह से ठिकाने लगा दिया है।
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