शनिवार, 15 मई 2010

एक और हालात-1

परसो हालात शीर्षक से एक पोस्ट लिखी थी। दरअसल, मन भारी हो गया था और उसे हल्का करना जरूरी था। अगर यह पोस्ट नहीं लिखता तो किसी छपास रोगी या नेता की ऐसी-तैसी होना तय थी। पर शुक्र है, पोस्ट लिख ली और मन भी हल्का हो गया। बिगूल वाले भाई राजकुमार सोनी ने अभी कुछ दिन पहले ही कहीं टिप्पणी थी कि ब्लाग जगत में ..तू मेरी खुजा मैं तेरी खुजाऊ.. वाली स्थिति है।

मैं सबकी नहीं खुजा पाता। इसलिए शायद सब मेरी खुजाने भी नहीं आएंगे। हाँ, कुछ पाठक जरूर मिल रहे हैं। सच कहूं तो दिनभर लोगों की नहीं खुजा पाने की वजह यह है कि मैं दो अखबारों के लिए प्रत्यक्ष और एक अखबार के लिए अप्रत्यक्ष रूप से काम कर रहा हूं। पत्रकार हूं पर भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा नहीं हूं। इसलिए घर परिवार चलाने के लिए तीन जगह काम करना पड़ रहा है। यहां तो भाई लोग दो हजार की तनख्वाह पर भी शान से जी रहे हैं। अपनी तो तीन जगह काम करने के बाद भी घरपूर्ति ही हो पा रही है। खैर, होता है। दुनिया में मुझ जैसे पागलों की कमी नहीं है। 

...तो बात पिछली पोस्ट हालात से शुरू की थी। इस पोस्ट पर पत्रकार साथी रितेश टिकरिहा ने टिप्पणी की है और 4-5 साल पुराने एक वाकये को भी ताजा कर दिया। यह वाकया भी कमोबेश वैसा ही था, जैसा हालात में उस अधेड़ का। एक वृद्ध महिला की बेबसी और एक महिला डाक्टर की बेशर्मी की यह दास्तान मैं अगले अंक में सुनाऊंगा। फिलहाल थोड़ा सा ब्रेक ले लिया जाए। अगले अंक में नो बकवास... ओनली एक और हालात...।

शुक्रवार, 14 मई 2010

हालात

35 रूपए में लेना है तो ले, उससे कम नहीं होगा। कंडरा बस्ती की उस महिला के मुंह से ऐसे कटु शब्द सुनकर उस आदमी का चेहरा बेचारगी की हद पार कर गया। उसने बेबस नजरों से महिला को देखा, पर महिला के चेहरे पर कोई भाव नहीं था।

आज सुबह आफिस के लिए निकलने गाड़ी उठाई तो उसने जवाब दे दिया। ..तो आज पैदल ही निकल पड़ा। घर से दफ्तर बहुत दूर नहीं है। रास्ते में ही कंडरा बस्ती पड़ती है। इसी बस्ती से गुजरते वक्त इस भीषण गर्मी में भी हाथ बांधकर खड़े एक अधेड़ पर मेरी नजर गई। सिर पर छोटे-छोटे बाल थे जो पूरी तरह भीग चुका था। वहां से पसीने की बूंदे उसके चेहरे पर आड़ी-तिरछी लकीरें बनाकर उसकी चमक खो चुकी सफेद कमीज पर गिरकर यहां-वहां बिन्दू बना रही थी। कमीज अस्त-व्यस्त थी और कमीज के नीचे उसने एक गमछा लपेट रखा था। एक दुबलाया, मरियल-सा अधेड़। पैर पर चप्पल भी नहीं थी। आंखों में नशा छाया हुआ था और पहली ही बार में देखकर कोई भी कह सकता था कि यह आदमी रातभर सोया नहीं है।

मुझे समझते देर नहीं लगी कि माजरा क्या है। इसी कंडरा बस्ती में एक भाजपा का छोटा नेता भी रहता है। पूरी स्थिति पर नजर रखने मैंने उस भाजपा नेता को आवाज लगाई और वहीं खड़ा हो गया।

दे दे दीदी.. 35 रूपया कहां ले लाव.. 22 ठन रूपया धरे हव। दे दे बहिनी...। उसके शब्दों में दर्द था और वह बुरी तरह गिड़गिड़ा रहा था। ..पर महिला को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। वह वापस भीतर चली गई तो अधेड़ वहीं हाथ बांधे उस दरवाजे पर टकटकी लगाए खड़ा उसके बाहर निकलने का इंतजार करने लगा।

क्या हो गया? - मैंने पूछा तो उसने मेरी तरफ देखे बिना ही जवाब दिया- कुछु नई..।

मैंने कुरेदने के से अंदाज में कहा - क्या मैं कोई मदद कर सकता हूँ?

उसने पहली बार दरवाजे से नजरें हटाई और मेरी ओर देखने लगा। उसकी आंखों में पानी उतर आया और पसीने की बूंदों के साथ मिलकर कहीं खो गया। नि:संदेह उसे मदद की जरूरत थी और मेरी ओर से हुई पहल पर उसकी आस बंध गई थी।

क्या बात है? मुझे बताओ... शायद मैं कोई मदद कर पाऊं?

चार महीने से बीमार हूं। घरवाली झाड़ू-पोंछा कर कमाती थी, पर कल शाम वह भी गुजर गई। - उसने कहा - मेरे शरीर में प्राण नहीं बचे। चलने और बात करने में तकलीफ होती है। घर में कुछ नहीं है। घरवाली का संस्कार कैसे करूं?

उसने बोलना बीच में रोककर मेरी आंखों में कुछ तलाशा और संतुष्ट होकर आगे कहने लगा - किसी तरह 22 रूपए लेकर आया हूं। पर काठी के लिए एक बांस 40 रूपए में दे रहे हैं। कहती है कि 5 रूपए कम कर दूंगी।

अब तक वह छुटभैय्या नेता भी आ गया था। मैंने अलग ले जाकर उससे बात की। अपनी ओर से कुछ रूपए दिए और उसे तमाम हालात बताकर काठी के लिए पूरे बांस की व्यवस्था करने को कहा।

घड़ी देखी तो 11 बज रहे थे। मुझे 10 बजे दफ्तर पहुंचना था। मैंने अपनी जेब में हाथ डालकर पर्स निकाला और 100 रूपए का एक नोट उस अधेड़ के हाथ में पकड़ा दिया। बिना उसे देखे, बिना मुड़े मैं आगे बढ़ गया।

मंगलवार, 11 मई 2010

पसंद करने पर नापसंद क्यों हो रहे हैं चिट्ठे

दोस्तों, पूरे यकीन के साथ कह रहा हूं कि ब्लागर साथियों के साथ काफी कुछ गलत हो रहा है। यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है कि टॉप लिस्ट में शामिल होने के लिए कई लोग किस तरह की लामबंदी और गिरोहबंदी कर रहे हैं। लेकिन पिछले कुछ दिनों से मेरे साथ जो हो रहा है, वह सबके साथ बांटना चाहता हूं। अभी शनिवार की बात है। मैंने एक ब्लाग को पसंद किया तो वह -2 (माइनस 2) हो गया। यानि यह बताया गया कि इस ब्लाग को दो लोगों ने नापसंद किया है। जबकि इससे पहले पसंद या नापसंद शून्य बता रहा था।) पसंद के बाद माइनस में जाना मुझे समझ में नहीं आया। कल भी मैंने एक ब्लागर का चिट्ठा जब पसंद किया (जिसे पहले से ही 3 लोगों ने पसंद किया था) तो भी मेरी पसंद नकारात्मक गई। जबकि मैं यह बेहतर जानता हूं कि चिट्ठे को पसंद कैसे किया जाता है और नापसंद कैसे? मंगलवार शाम को जब मैंने एक घटिया किस्म के ब्लाग को नापसंद किया तो आश्चर्यजनक रूप से दो अंक प्लस में चला गया। ब्लाग जगत के दिग्गजों से मैं यह जानना चाहता हूं कि क्या ऐसा भी हो सकता है? कृपया मुझे बताएं कि पसंद करने वाले नापसंद और नापसंद करने वाले पसंद कैसे बन रहे हैं।

एक बात और बताना चाहूंगा। एक महिला के जब मैंने टिप्पणी भेजी तो संदेश आया कि आप इस ब्लाग पर संदेश नहीं भेज सकते। जबकि मैंने उस महिला की पंक्तियों को सराहा था। क्या ऐसा हो सकता है कि कुछ लोग अपने ब्लाग में ऐसे ईमेल डालकर रखें, जिनकी टिप्पणी प्रकाशित ही न हो पाए? इससे पहले एक सज्जन के साथ भी मेरा यही अनुभव रहा है और मजे की बात यह है कि यह दोनों एक दूसरे के साथ हैं। इसे क्या माना जाए?

सोमवार, 10 मई 2010

चेंदरू के बेटे को शिक्षक बना दो

                                     (नरेश सोनी)

क्या आप चेंदरू को जानते हैं? सवाल अजीब लग सकता है - कौन चेंदरू? 1960 के दशक में एक 10 साल का माडिय़ा आदिवासी अंतरराष्ट्रीय नायक बनकर उभरा था। चेंदरू पर स्वीडिश फिल्मकार अर्ने सुकेड्राफ की पत्नी एस्ट्राइड सुकेड्राफ ने एक किताब लिखी थी। इस किताब का विलियन सैमसंग ने अंग्रेजी अनुवाद किया। बाद में अर्ने ने 10 साल के चेंदरू के जीवन का पूरे 2 साल तक फिल्मांकन किया। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर चेंदरू और उसका शेर नामक यह फिल्म बेहद कामयाब रही। जिसके बाद किसी अबूझमाडिय़ा को पहली बार विदेश जाने का भी अवसर मिला। बाद में फ्रांस में भी चेंदरू एट सन टाइगर नाम की पुस्तक छपी। अमेरिका में भी इसी दौरान चेंदरू : द ब्वाय एंड द टाइगर के नाम से किताब प्रकाशित हुई। अभी कुछ समय पहले ही चेंदरू और उसके जीवन पर एक समाचार चैनल ने घंटेभर का विशेष कार्यक्रम भी प्रसारित किया था और उसकी वर्तमान बुरी हालत की परतें खोली थी। अबूझमाड़ के इसी चेंदरू का बेटा शिक्षक बनना चाहता है।

चेंदरू की कहानी विदेशों में शायद इसीलिए पहचान बना पाई कि एक 10 साल के लड़के का दोस्त एक व्यस्क शेर था। चेंदरू सारा दिन इसी शेर के साथ जंगलों में घूमता, शिकार करता। शायद विदेशों में इस कहानी की लोकप्रियता टारजन जैसी फिल्मों की वजह से हुई। टारजन को काल्पनिक पात्र माना जाता है, लेकिन भारत के बेहद पिछड़े परिवेश में एक वास्तविक टारजन का हीरो बन जाना वाकई चकित करने वाला है। चेंदरू तो अनपढ़ था, किन्तु उसने अपने बच्चों को पढ़ाया। उसका बेटा जयराम शिक्षाकर्मी बनना चाहता है। वह बस्तर जैसे पिछड़े इलाके खासकर अबूझमाड़ में शिक्षा की अलख जगाने का इच्छुक है। वैसे, एक नंगी सच्चाई यह भी है कि नारायणपुर जिले के गड़बेंगाल में रहने वाले चेंदरू का परिवार दो जून की रोटी का भी मोहताज है। समाचार चैनल में चेंदरू की लम्बी स्टोरी चलने के बाद बस्तर के प्रभारी मंत्री केदार कश्यप ने चेंदरू को 25 हजार रूपए का अनुदान दिया था। लेकिन उसके बाद से कभी, किसी ने इस परिवार की सुध नहीं ली। जबकि नारायणपुर जिले का अबूझमाड़ ही वह क्षेत्र है, जो सबसे ज्यादा नक्सल प्रभावित है। सरकार ने इस क्षेत्र के शिक्षिक बेरोजगारों को सरकारी नौकरी देने का ऐलान किया था, लेकिन यह ऐलान जमीन पर आकर कब का दम तोड़ चुका है। एक ओर जहां बस्तर के भीतरी इलाकों में जाकर कोई काम करना नहीं चाहता तो दूसरी ओर इच्चुक स्थानीय लोग ही उपेक्षित हैं। इस विडंबना से पार पाना बड़ी चुनौती है।