गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

शह से पहले मिली मात

बैस का खेला पिछड़ा वर्ग कार्ड, भुनाया रमन ने

- नरेश सोनी -

छत्तीसगढ़ में निगम, मंडल और आयोगों में नियुक्तियों का सिलसिला जल्द ही शुरू होने जा रहा है। इसके लिए कई नाम तय कर लिए गए हैं जबकि कई अन्य नामों पर अंतिम मुहर अभी लगनी है। राज्य में आदिवासी समाज की लॉबिंग के बाद जिस तरह से सांसद रमेश बैस ने पिछड़ा वर्ग की वकालत करते हुए प्रदेश भाजपाध्यक्ष पद के लिए दावा ठोका, उसके दो दिनों बाद ही पिछड़ा वर्ग के एक विधायक का नाम मंत्री पद के लिए तय कर लिया गया। रमन सरकार के तेरहवें मंत्री दुर्ग जिले के नवागढ़ से विधायक दयालदास बघेल होंगे। दरअसल, बघेल के जरिए मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने न केवल पिछड़ा वर्ग को साधने की कोशिश की है, बल्कि बैस की लगाई आग पर भी काबू पाने की चेष्टा की है।
उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ को आदिवासी राज्य बताए जाने पर सांसद रमेश बैस ने ऐतराज किया था। उनका कहना था कि पिछड़ा वर्ग की राज्य में तादाद 52 फीसदी है जबकि आदिवासी महज 12 फीसदी ही हैं। ऐसे में यह राज्य आदिवासी कैसे हो गया? शायद इसीलिए बैस ने भाजपा कोरग्रुप की हुई बैठक में प्रदेश अध्यक्ष के लिए अपना दावा ठोंक दिया। बैस, छत्तीसगढ़ भाजपा के अध्यक्ष बन पाते हैं, या नहीं यह दीगर बात है - पर बैस के के शह देने और खुद ही मात खाने के मसले पर काफी कुछ कहा जा सकता है। एक तीर से कई शिकार करने में माहिर सांसद रमेश बैस की निगाहें लम्बे समय से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रही है, लेकिन यह उनका दुर्भाग्य है कि वे कुछ कर नहीं पाए। कई बार लॉबिंग की खबरें भी आई पर कोई नतीजा नहीं निकल पाया। मजेदार बात यह है कि कोरग्रुप की बैठक होते तक किसी को मालूम भी नहीं था कि बैस ऐसा कोई दावा भी कर सकते हैं। उनके दावों ने दरअसल, कोरग्रुप के सदस्यों  को चकित कर दिया। इस बैठक से पहले तक आदिवासी नेता व सांसद मुरालीलाल सिंह की दावेदारी को पक्का माना जा रहा था और इसी कोरग्रुप की बैठक में उनके नाम पर अंतिम मुहर भी लगनी थी। किन्तु ऐन वक्त पर रमेश बैस द्वारा स्वयं को अध्यक्ष पद के लिए प्रोजेक्ट किए जाने और पिछड़ा वर्ग की वकालत करने से छत्तीसगढ़ की राजनीति में एक बार फिर उठापटक के संकेत मिलने लगे। गौरतलब है कि राज्य के आदिवासी नेता समय-समय पर लामबंद होकर सत्ता के शीर्ष पदों पर दावेदारी करते रहे हैं। राजधानी रायपुर में कुछ समय पूर्व राज्यभर के आदिवासियों ने रैली निकालकर ताकत दिखाई थी। इस रैली में सभी दलों के आदिवासी नेता शामिल हुए और मुख्यमंत्री और राज्यपाल जैसे पदों पर दावा जताया गया था। एक बार फिर देशभर के आदिवासी लामबंद होने जा रहे हैं। यह पिछड़ों के लिए खतरे की घंटी भी है क्योंकि इस वर्ग के साथ सत्ता और संगठन में कभी न्याय नहीं हुआ। इसलिए इस वर्ग के नाम पर ही सही, बैस ने अपना कार्ड तो खेल दिया। पर मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह भी कच्चे खिलाड़ी नहीं हैं। बैस के इरादों को भांपकर उन्होंने करीब सवा सालों से खाली पड़े तेरहवें मंत्री के पद के लिए दयालदास बघेल के  नाम पर मुहर लगा दी। इससे पहले कि पिछड़ा वर्ग की कोई नई मुहिम शुरू हो पाती, राजनीति के माहिर खिलाड़ी की तरह मुख्यमंत्री डॉ. सिंह ने पिछड़ा वर्ग और वह भी बैस की ही बिरादरी के नेता को आगे बढ़ाकर खुद को मिलने वाली शह से पहले ही सामने वाले को मात दे दी।
राज्य में भाजपा को बहुमत मिलने के बाद जिन लोगों के नाम मुख्यमंत्री पद के लिए प्रमुखता से लिए जा रहे थे, उनमें एक रमेश बैस भी थे। लेकिन क्योंकि डॉ. रमन सिंह ने केन्द्रीय मंत्री का पद छोड़कर प्रदेश भाजपाध्यक्ष की कमान संभाली थी, इसलिए पार्टी की नजरों में रमन सिंह का वजन ज्यादा था। इससे पहले अजीत जोगी ने आदिवासी कार्ड खेला था और इसी कार्ड के दम पर वे मुख्यमंत्री बने। स्वयं को आदिवासी बताने और आदिवासी वर्ग के प्रति उनके लगाव ने इस वर्ग को छत्तीसगढ़ में काफी सशक्त बना दिया। नतीजतन डॉ. रमन सिंह के मुख्यमंत्री बनने के बाद आदिवासी वर्ग को जरूरत से ज्यादा महत्व दिया गया, ताकि पूरा आदिवासी समुदाय कांग्रेस की बपौती बनकर न रह जाए। संगठन की कमान एक आदिवासी को सौंपी गई तो मंत्रिमंडल में भी आदिवासी विधायकों को पर्याप्त जगह मिली। इसके चलते राज्य के पिछड़ा वर्ग के नेता हाशिए पर चले गए। राज्य में आदिवासी वर्ग इसलिए भी सुर्खियों में रहा क्योंकि बस्तर में नक्सलियों की आमद का खामियाजा इन्हीं आदिवासियों ने भोगा। बात सिर्फ इतनी ही नहीं है। भाजपा को राज्य में दोनों बार सत्ता में लाने में आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों की बड़ी भूमिका रही है। यह बात अलग है कि छत्तीसगढ़ से कांग्रेस के इकलौते सांसद चरणदास महंत ने लोकसभा में नक्सलियों से सांठगांठ के मसले पर भाजपा की खूब भद्द पीटी।
पर बैस की मंशा कुछ और ही दिखाई पड़ती है। कहीं न कहीं वे संगठन के जरिए छत्तीसगढ़ की सत्ता के केन्द्र तक पहुंचने की राह तलाश रहे हैं। हालांकि अभी विधानसभा चुनाव को करीब काफी वक्त है पर यदि वे प्रदेश अध्यक्ष बन जाते हैं तो संगठन की ताकत के बल पर आसान राह भी बना सकते हैं। दिल्ली में बैठे कई वरिष्ठ नेता उनका साथ दे रहे हैं। जाहिर है कि वे पिछड़ों के सर्वमान्य नेता बनने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन उनकी इन कोशिशों को रमन ने पलीता लगा दिया है। पिछड़ा वर्ग को प्रतिनिधित्व देकर उन्होंने इस पूरे समाज को तो साधने की कोशिश की ही है, साथ ही बैस को भी एक तरह से ठिकाने लगा दिया है।
००००

3 टिप्‍पणियां:

  1. राजनीती में जो हो जाये कम है।
    अच्छा लेख।

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  2. ...राजनैतिक चौपड मे तो मोहरे जीतते - हारते रहते हैं ... ब्लाग का हैडर आकर्षक है .... साथ ही साथ टिप्पणी मे जो शब्द पुष्टिकरण का झंझट है उसे हटा देने में कोई बुराई नही है !!!!!!

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  3. प्रिय भाई नरेश,
    फिलहाल तो डाक्टर रमन ही सब पर भारी है। तुमने अच्छा लिखा है। तुम्हारे भीतर का पत्रकार हमेशा चौकस रहता है यह जानकार अच्छा लगता है। तुम्हारी पूंछ उखाड़ देने वाली टिप्पणी वाकई मजेदार थी। मैं बहुत देर तक हंसता रहा।

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