हम लोग उसे भूत कहते थे। नाम था - भूतनाथ। मजाक-मजाक में उसके लिए चुटकुला भी बना लिया था कि ...भूत आ जाएगा। दरअसल, जब भी कुछ खाने (या पीने) बैठो तो वह अचानक ही आ धमकता था और बिना कुछ कहें, पूछे ही हमारी बैठकी का हिस्सा बन जाता था। खाने-पीने का सारा कार्यक्रम दफ्तर में शाम को छुट्टी के बाद शुरू होता था। भूत की पत्नी गांव में थी। वह यहां शहर में अपनी बूढ़ी मां के साथ ही था। किसी प्रायवेट कंपनी में काम करता था। कहते हैं कि उसकी बूढ़ी मां टोनही थी। उससे सब डरते थे। हालांकि मुझे इसमें कोई सच्चाई कभी नजर नहीं आई। कभी-कभी हम तीन-चार लोग चंदेबाजी कर मुर्गा वगैरह भी लाते थे, जिसे भूत ही अपने घर में पकाता था। चावल वह अपनी ओर से पका लाता था। दफ्तर से ठीक बाजू में उसका झोपड़ीनुमा घर आज भी है। पर आज न भूत है, न उसकी बूढ़ी माँ। भूत की मौत को 5 साल गुजर गए हैं, जबकि बुढ़ी माई दो साल पहले चल बसी। घर पर भूत की पत्नी के रिश्तेदारों का कब्जा हो गया है।
अखबार से जुड़े लोगों को यह भलीभांति मालूम होगा कि दीपावली का त्यौहार अखबारनवीसों, खासकर अखबार मालिकों के लिए खूब लक्ष्मी लेकर आता है। हर साल दीवाली से हफ्ते-पंद्रह दिन पहले ही प्रेस में विज्ञापनों का काम शुरू होता है और दीवाली को 20-30 पृष्ठों का अखबार निकाला जाता है, जिसमें पढऩे को तो कुछ नहीं होता, पर भरपूर विज्ञापन जरूर होते हैं। अखबारों को यही विज्ञापन चलाते हैं, पर दीपावली में अखबार मालिकों के लिए जमकर धन बरसता है। ...वह यही दीवाली के आसपास का वक्त था, जब हम लोग शाम से लेकर देर रात तक विज्ञापनों को कम्प्यूटर पर तैयार करवाते और प्रूफरीडिंग करते थे। क्योंकि यह अतिरिक्त काम होता, इसलिए रोजाना व्हिस्की की एक बोतल जरूर आती। ..और हाँ, खाना तो रोज भूत के घर पर बनता ही था। हम चार-पांच लोग जमकर पीते और खाते। मौज-मस्ती तो खैर होती ही।
वह ठंडक बरसाती उजली रात थी। करीब 10 बज रहे थे। पूरा मोहल्ला खामोश होते आ गया था और पास की बड़ी नाली से मेढ़क के टर्राने की आवाज आ रही थी। भूत ने दूसरा पैग गले से उतारने के बाद बताया कि उसे पीलिया हो गया है और पिछले कई दिनों से वह काम पर नहीं गया है। पीलिया की खबर हमारे लिए नई थी। इस पर वह पिछले कई दिनों से हमारे साथ शराब और मांस का सेवन कर रहा था। समझाईश के बाद भी वह नहीं माना तो हम सबने तय किया कि अब न उससे खाना बनवाना है और न ही उसे शराब ही पिलानी है। अगले दो दिनों तक वह इसी लालसा में आता रहा कि उसे खाने-पीने को मिलेगा, लेकिन हमने उसे साफ मना कर दिया। हालांकि उसके मुंह से देसी शराब का भभका बराबर उठता रहा। दो-तीन दिनों के बाद शाम को पता चला कि उसे सरकारी अस्पताल में भर्ती करा दिया गया है। ...और उसके अगले ही दिन उसकी मौत हो गई। रात करीब 8 बजे थे, जब भूत की बूढ़ी मां अपने दोनों हाथों में लाठी पकड़े दफ्तर के भीतर तक चली आई। उसकी आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे। उसी ने बताया कि उसका बेटा अब इस दुनिया में नहीं रहा। पास ही एक बदनाम महिला डाक्टर भी रहती थी। इस डाक्टर की दो बोटियां हैं, लेकिन उन्हें कभी किसी ने नहीं देखा। एक बेटा भी है जो विदेश में रहता है। पति की मौत काफी पहले हो चुकी थी। कुल मिलाकर डाक्टर तीन मंजिला मकान में अकेली ही रहती थी। जब कभी उसे कोई छोटा-मोटा काम करवाना होता, भूतनाथ को ही याद किया जाता था।
...तो भूतनाथ की मौत की खबर देने जब बूढ़ी मां बड़ी मुश्किल से उस डाक्टर के घर पहुंची तो करीब 20 मिनट तक उसके घर का दरवाजा नहीं खुला। डाक्टर नीचे डिस्पेंसरी चलातीं थीं और प्रथम तल पर उसका रहना होता था। कहते हैं कि महिलाओं की विशेषज्ञ यह डाक्टर सैकड़ों अजन्में बच्चों की मौत की वजह रही हैं। और कि शहर में उसकी पहचान गर्भपात विशेषज्ञ के रूप में रही है। ...और कि ऐसा कई बार हुआ जब आसपास के इलाकों में हथेली में समा जाने वाले मृत नवजात मिले। खैर, बीस मिनट के बाद जब दरवाजा खुला तो बिना कोई जाने-समझे सबसे पहले तो डाक्टर ने बुढिय़ा को जमकर गालियां दीं। नींद खराब करने के लिए उसे जमकर कोसा। इस दौरान बुढिय़ा पूरे समय जोर-जोर से रोती रही।
महिला डाक्टर ने जब अपनी पूरी भड़ास निकाल ली तो जोरदार आवाज में पूछा, - रो क्यों रही है.. कोई मर गया है क्या? बुढिय़ा ने उसी तरह रोते हुए बताया - मोर बेटा मर गे....।
...तो मैं क्या करूं...? मेरे पास आएगी तो जिंदा हो जाएगा क्या...। - डाक्टर से इतनी बेरूखी की उम्मीद हममे से किसी ने नहीं किसी की थी।
बताए ला आए हव...- बूढिय़ा ने रोते हुए कहा तो डाक्टर का जवाब था - बता दिया न.. अब जा, चल निकल यहां से...। उसने हाथ की उंगली से ईशारा करते हुए कहा - अब मत आना मेरे पास। - इतना कहने के बाद डाक्टर ने दरवाजा बंद कर लिया। बुढिय़ा रोती हुई अपनी झोपड़ी में आ गई। पूरी तरह अकेली, एक सुनसान घर में, जहां अब उसका इकलौता बेटा भी नहीं था।
दफ्तर के सभी साथियों का मन खराब हो चुका था। किसी की काम करने की इच्छा नहीं हुई। हम सब दफ्तर बंद कर अपने-अपने घर रवाना हो गए। ..पर रात का अधिकांश वक्त करवटे बदलते हुए बीता। सुबह 10 बजे के आसपास जब दफ्तर पहुंचा तो भूतनाथ का शव लाने की तैयारी थी। झोपड़ी के बाहर बांस की अर्थी सजाई जा रही थी। थोड़ी ही देर में सरकारी एंबुलेंस में भूत का शव लाया गया। और कुछ ही देर बाद उसकी अंतिम यात्रा भी निकल गई। इस दौरान पड़ोस की महिला डाक्टर के यहां मरीजों की भीड़ लगी थी। वह अपने मरीजों में व्यस्त थी और इधर, भूत की बूढ़ी मां के आंसू रोके नहीं रूक रहे थे।
(मित्रों, इस कहानी के तीनों प्रमुख पात्रों, भूतनाथ, उसकी बूढ़ी मां और महिला डाक्टर की मौत हो चुकी है। भूतनाथ की मौत के तीन साल बाद उसकी बूढ़ी मां की गांव में मौत हो गई। जबकि डाक्टर ने अभी पिछले साल ही दम तोड़ा।)
रविवार, 16 मई 2010
शनिवार, 15 मई 2010
एक और हालात-1
परसो हालात शीर्षक से एक पोस्ट लिखी थी। दरअसल, मन भारी हो गया था और उसे हल्का करना जरूरी था। अगर यह पोस्ट नहीं लिखता तो किसी छपास रोगी या नेता की ऐसी-तैसी होना तय थी। पर शुक्र है, पोस्ट लिख ली और मन भी हल्का हो गया। बिगूल वाले भाई राजकुमार सोनी ने अभी कुछ दिन पहले ही कहीं टिप्पणी थी कि ब्लाग जगत में ..तू मेरी खुजा मैं तेरी खुजाऊ.. वाली स्थिति है।
मैं सबकी नहीं खुजा पाता। इसलिए शायद सब मेरी खुजाने भी नहीं आएंगे। हाँ, कुछ पाठक जरूर मिल रहे हैं। सच कहूं तो दिनभर लोगों की नहीं खुजा पाने की वजह यह है कि मैं दो अखबारों के लिए प्रत्यक्ष और एक अखबार के लिए अप्रत्यक्ष रूप से काम कर रहा हूं। पत्रकार हूं पर भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा नहीं हूं। इसलिए घर परिवार चलाने के लिए तीन जगह काम करना पड़ रहा है। यहां तो भाई लोग दो हजार की तनख्वाह पर भी शान से जी रहे हैं। अपनी तो तीन जगह काम करने के बाद भी घरपूर्ति ही हो पा रही है। खैर, होता है। दुनिया में मुझ जैसे पागलों की कमी नहीं है।
...तो बात पिछली पोस्ट हालात से शुरू की थी। इस पोस्ट पर पत्रकार साथी रितेश टिकरिहा ने टिप्पणी की है और 4-5 साल पुराने एक वाकये को भी ताजा कर दिया। यह वाकया भी कमोबेश वैसा ही था, जैसा हालात में उस अधेड़ का। एक वृद्ध महिला की बेबसी और एक महिला डाक्टर की बेशर्मी की यह दास्तान मैं अगले अंक में सुनाऊंगा। फिलहाल थोड़ा सा ब्रेक ले लिया जाए। अगले अंक में नो बकवास... ओनली एक और हालात...।
मैं सबकी नहीं खुजा पाता। इसलिए शायद सब मेरी खुजाने भी नहीं आएंगे। हाँ, कुछ पाठक जरूर मिल रहे हैं। सच कहूं तो दिनभर लोगों की नहीं खुजा पाने की वजह यह है कि मैं दो अखबारों के लिए प्रत्यक्ष और एक अखबार के लिए अप्रत्यक्ष रूप से काम कर रहा हूं। पत्रकार हूं पर भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा नहीं हूं। इसलिए घर परिवार चलाने के लिए तीन जगह काम करना पड़ रहा है। यहां तो भाई लोग दो हजार की तनख्वाह पर भी शान से जी रहे हैं। अपनी तो तीन जगह काम करने के बाद भी घरपूर्ति ही हो पा रही है। खैर, होता है। दुनिया में मुझ जैसे पागलों की कमी नहीं है।
...तो बात पिछली पोस्ट हालात से शुरू की थी। इस पोस्ट पर पत्रकार साथी रितेश टिकरिहा ने टिप्पणी की है और 4-5 साल पुराने एक वाकये को भी ताजा कर दिया। यह वाकया भी कमोबेश वैसा ही था, जैसा हालात में उस अधेड़ का। एक वृद्ध महिला की बेबसी और एक महिला डाक्टर की बेशर्मी की यह दास्तान मैं अगले अंक में सुनाऊंगा। फिलहाल थोड़ा सा ब्रेक ले लिया जाए। अगले अंक में नो बकवास... ओनली एक और हालात...।
शुक्रवार, 14 मई 2010
हालात
35 रूपए में लेना है तो ले, उससे कम नहीं होगा। कंडरा बस्ती की उस महिला के मुंह से ऐसे कटु शब्द सुनकर उस आदमी का चेहरा बेचारगी की हद पार कर गया। उसने बेबस नजरों से महिला को देखा, पर महिला के चेहरे पर कोई भाव नहीं था।
आज सुबह आफिस के लिए निकलने गाड़ी उठाई तो उसने जवाब दे दिया। ..तो आज पैदल ही निकल पड़ा। घर से दफ्तर बहुत दूर नहीं है। रास्ते में ही कंडरा बस्ती पड़ती है। इसी बस्ती से गुजरते वक्त इस भीषण गर्मी में भी हाथ बांधकर खड़े एक अधेड़ पर मेरी नजर गई। सिर पर छोटे-छोटे बाल थे जो पूरी तरह भीग चुका था। वहां से पसीने की बूंदे उसके चेहरे पर आड़ी-तिरछी लकीरें बनाकर उसकी चमक खो चुकी सफेद कमीज पर गिरकर यहां-वहां बिन्दू बना रही थी। कमीज अस्त-व्यस्त थी और कमीज के नीचे उसने एक गमछा लपेट रखा था। एक दुबलाया, मरियल-सा अधेड़। पैर पर चप्पल भी नहीं थी। आंखों में नशा छाया हुआ था और पहली ही बार में देखकर कोई भी कह सकता था कि यह आदमी रातभर सोया नहीं है।
मुझे समझते देर नहीं लगी कि माजरा क्या है। इसी कंडरा बस्ती में एक भाजपा का छोटा नेता भी रहता है। पूरी स्थिति पर नजर रखने मैंने उस भाजपा नेता को आवाज लगाई और वहीं खड़ा हो गया।
दे दे दीदी.. 35 रूपया कहां ले लाव.. 22 ठन रूपया धरे हव। दे दे बहिनी...। उसके शब्दों में दर्द था और वह बुरी तरह गिड़गिड़ा रहा था। ..पर महिला को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। वह वापस भीतर चली गई तो अधेड़ वहीं हाथ बांधे उस दरवाजे पर टकटकी लगाए खड़ा उसके बाहर निकलने का इंतजार करने लगा।
क्या हो गया? - मैंने पूछा तो उसने मेरी तरफ देखे बिना ही जवाब दिया- कुछु नई..।
मैंने कुरेदने के से अंदाज में कहा - क्या मैं कोई मदद कर सकता हूँ?
उसने पहली बार दरवाजे से नजरें हटाई और मेरी ओर देखने लगा। उसकी आंखों में पानी उतर आया और पसीने की बूंदों के साथ मिलकर कहीं खो गया। नि:संदेह उसे मदद की जरूरत थी और मेरी ओर से हुई पहल पर उसकी आस बंध गई थी।
क्या बात है? मुझे बताओ... शायद मैं कोई मदद कर पाऊं?
चार महीने से बीमार हूं। घरवाली झाड़ू-पोंछा कर कमाती थी, पर कल शाम वह भी गुजर गई। - उसने कहा - मेरे शरीर में प्राण नहीं बचे। चलने और बात करने में तकलीफ होती है। घर में कुछ नहीं है। घरवाली का संस्कार कैसे करूं?
उसने बोलना बीच में रोककर मेरी आंखों में कुछ तलाशा और संतुष्ट होकर आगे कहने लगा - किसी तरह 22 रूपए लेकर आया हूं। पर काठी के लिए एक बांस 40 रूपए में दे रहे हैं। कहती है कि 5 रूपए कम कर दूंगी।
अब तक वह छुटभैय्या नेता भी आ गया था। मैंने अलग ले जाकर उससे बात की। अपनी ओर से कुछ रूपए दिए और उसे तमाम हालात बताकर काठी के लिए पूरे बांस की व्यवस्था करने को कहा।
घड़ी देखी तो 11 बज रहे थे। मुझे 10 बजे दफ्तर पहुंचना था। मैंने अपनी जेब में हाथ डालकर पर्स निकाला और 100 रूपए का एक नोट उस अधेड़ के हाथ में पकड़ा दिया। बिना उसे देखे, बिना मुड़े मैं आगे बढ़ गया।
आज सुबह आफिस के लिए निकलने गाड़ी उठाई तो उसने जवाब दे दिया। ..तो आज पैदल ही निकल पड़ा। घर से दफ्तर बहुत दूर नहीं है। रास्ते में ही कंडरा बस्ती पड़ती है। इसी बस्ती से गुजरते वक्त इस भीषण गर्मी में भी हाथ बांधकर खड़े एक अधेड़ पर मेरी नजर गई। सिर पर छोटे-छोटे बाल थे जो पूरी तरह भीग चुका था। वहां से पसीने की बूंदे उसके चेहरे पर आड़ी-तिरछी लकीरें बनाकर उसकी चमक खो चुकी सफेद कमीज पर गिरकर यहां-वहां बिन्दू बना रही थी। कमीज अस्त-व्यस्त थी और कमीज के नीचे उसने एक गमछा लपेट रखा था। एक दुबलाया, मरियल-सा अधेड़। पैर पर चप्पल भी नहीं थी। आंखों में नशा छाया हुआ था और पहली ही बार में देखकर कोई भी कह सकता था कि यह आदमी रातभर सोया नहीं है।
मुझे समझते देर नहीं लगी कि माजरा क्या है। इसी कंडरा बस्ती में एक भाजपा का छोटा नेता भी रहता है। पूरी स्थिति पर नजर रखने मैंने उस भाजपा नेता को आवाज लगाई और वहीं खड़ा हो गया।
दे दे दीदी.. 35 रूपया कहां ले लाव.. 22 ठन रूपया धरे हव। दे दे बहिनी...। उसके शब्दों में दर्द था और वह बुरी तरह गिड़गिड़ा रहा था। ..पर महिला को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। वह वापस भीतर चली गई तो अधेड़ वहीं हाथ बांधे उस दरवाजे पर टकटकी लगाए खड़ा उसके बाहर निकलने का इंतजार करने लगा।
क्या हो गया? - मैंने पूछा तो उसने मेरी तरफ देखे बिना ही जवाब दिया- कुछु नई..।
मैंने कुरेदने के से अंदाज में कहा - क्या मैं कोई मदद कर सकता हूँ?
उसने पहली बार दरवाजे से नजरें हटाई और मेरी ओर देखने लगा। उसकी आंखों में पानी उतर आया और पसीने की बूंदों के साथ मिलकर कहीं खो गया। नि:संदेह उसे मदद की जरूरत थी और मेरी ओर से हुई पहल पर उसकी आस बंध गई थी।
क्या बात है? मुझे बताओ... शायद मैं कोई मदद कर पाऊं?
चार महीने से बीमार हूं। घरवाली झाड़ू-पोंछा कर कमाती थी, पर कल शाम वह भी गुजर गई। - उसने कहा - मेरे शरीर में प्राण नहीं बचे। चलने और बात करने में तकलीफ होती है। घर में कुछ नहीं है। घरवाली का संस्कार कैसे करूं?
उसने बोलना बीच में रोककर मेरी आंखों में कुछ तलाशा और संतुष्ट होकर आगे कहने लगा - किसी तरह 22 रूपए लेकर आया हूं। पर काठी के लिए एक बांस 40 रूपए में दे रहे हैं। कहती है कि 5 रूपए कम कर दूंगी।
अब तक वह छुटभैय्या नेता भी आ गया था। मैंने अलग ले जाकर उससे बात की। अपनी ओर से कुछ रूपए दिए और उसे तमाम हालात बताकर काठी के लिए पूरे बांस की व्यवस्था करने को कहा।
घड़ी देखी तो 11 बज रहे थे। मुझे 10 बजे दफ्तर पहुंचना था। मैंने अपनी जेब में हाथ डालकर पर्स निकाला और 100 रूपए का एक नोट उस अधेड़ के हाथ में पकड़ा दिया। बिना उसे देखे, बिना मुड़े मैं आगे बढ़ गया।
मंगलवार, 11 मई 2010
पसंद करने पर नापसंद क्यों हो रहे हैं चिट्ठे
दोस्तों, पूरे यकीन के साथ कह रहा हूं कि ब्लागर साथियों के साथ काफी कुछ गलत हो रहा है। यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है कि टॉप लिस्ट में शामिल होने के लिए कई लोग किस तरह की लामबंदी और गिरोहबंदी कर रहे हैं। लेकिन पिछले कुछ दिनों से मेरे साथ जो हो रहा है, वह सबके साथ बांटना चाहता हूं। अभी शनिवार की बात है। मैंने एक ब्लाग को पसंद किया तो वह -2 (माइनस 2) हो गया। यानि यह बताया गया कि इस ब्लाग को दो लोगों ने नापसंद किया है। जबकि इससे पहले पसंद या नापसंद शून्य बता रहा था।) पसंद के बाद माइनस में जाना मुझे समझ में नहीं आया। कल भी मैंने एक ब्लागर का चिट्ठा जब पसंद किया (जिसे पहले से ही 3 लोगों ने पसंद किया था) तो भी मेरी पसंद नकारात्मक गई। जबकि मैं यह बेहतर जानता हूं कि चिट्ठे को पसंद कैसे किया जाता है और नापसंद कैसे? मंगलवार शाम को जब मैंने एक घटिया किस्म के ब्लाग को नापसंद किया तो आश्चर्यजनक रूप से दो अंक प्लस में चला गया। ब्लाग जगत के दिग्गजों से मैं यह जानना चाहता हूं कि क्या ऐसा भी हो सकता है? कृपया मुझे बताएं कि पसंद करने वाले नापसंद और नापसंद करने वाले पसंद कैसे बन रहे हैं।
एक बात और बताना चाहूंगा। एक महिला के जब मैंने टिप्पणी भेजी तो संदेश आया कि आप इस ब्लाग पर संदेश नहीं भेज सकते। जबकि मैंने उस महिला की पंक्तियों को सराहा था। क्या ऐसा हो सकता है कि कुछ लोग अपने ब्लाग में ऐसे ईमेल डालकर रखें, जिनकी टिप्पणी प्रकाशित ही न हो पाए? इससे पहले एक सज्जन के साथ भी मेरा यही अनुभव रहा है और मजे की बात यह है कि यह दोनों एक दूसरे के साथ हैं। इसे क्या माना जाए?
एक बात और बताना चाहूंगा। एक महिला के जब मैंने टिप्पणी भेजी तो संदेश आया कि आप इस ब्लाग पर संदेश नहीं भेज सकते। जबकि मैंने उस महिला की पंक्तियों को सराहा था। क्या ऐसा हो सकता है कि कुछ लोग अपने ब्लाग में ऐसे ईमेल डालकर रखें, जिनकी टिप्पणी प्रकाशित ही न हो पाए? इससे पहले एक सज्जन के साथ भी मेरा यही अनुभव रहा है और मजे की बात यह है कि यह दोनों एक दूसरे के साथ हैं। इसे क्या माना जाए?
सोमवार, 10 मई 2010
चेंदरू के बेटे को शिक्षक बना दो
(नरेश सोनी)
क्या आप चेंदरू को जानते हैं? सवाल अजीब लग सकता है - कौन चेंदरू? 1960 के दशक में एक 10 साल का माडिय़ा आदिवासी अंतरराष्ट्रीय नायक बनकर उभरा था। चेंदरू पर स्वीडिश फिल्मकार अर्ने सुकेड्राफ की पत्नी एस्ट्राइड सुकेड्राफ ने एक किताब लिखी थी। इस किताब का विलियन सैमसंग ने अंग्रेजी अनुवाद किया। बाद में अर्ने ने 10 साल के चेंदरू के जीवन का पूरे 2 साल तक फिल्मांकन किया। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर चेंदरू और उसका शेर नामक यह फिल्म बेहद कामयाब रही। जिसके बाद किसी अबूझमाडिय़ा को पहली बार विदेश जाने का भी अवसर मिला। बाद में फ्रांस में भी चेंदरू एट सन टाइगर नाम की पुस्तक छपी। अमेरिका में भी इसी दौरान चेंदरू : द ब्वाय एंड द टाइगर के नाम से किताब प्रकाशित हुई। अभी कुछ समय पहले ही चेंदरू और उसके जीवन पर एक समाचार चैनल ने घंटेभर का विशेष कार्यक्रम भी प्रसारित किया था और उसकी वर्तमान बुरी हालत की परतें खोली थी। अबूझमाड़ के इसी चेंदरू का बेटा शिक्षक बनना चाहता है।
चेंदरू की कहानी विदेशों में शायद इसीलिए पहचान बना पाई कि एक 10 साल के लड़के का दोस्त एक व्यस्क शेर था। चेंदरू सारा दिन इसी शेर के साथ जंगलों में घूमता, शिकार करता। शायद विदेशों में इस कहानी की लोकप्रियता टारजन जैसी फिल्मों की वजह से हुई। टारजन को काल्पनिक पात्र माना जाता है, लेकिन भारत के बेहद पिछड़े परिवेश में एक वास्तविक टारजन का हीरो बन जाना वाकई चकित करने वाला है। चेंदरू तो अनपढ़ था, किन्तु उसने अपने बच्चों को पढ़ाया। उसका बेटा जयराम शिक्षाकर्मी बनना चाहता है। वह बस्तर जैसे पिछड़े इलाके खासकर अबूझमाड़ में शिक्षा की अलख जगाने का इच्छुक है। वैसे, एक नंगी सच्चाई यह भी है कि नारायणपुर जिले के गड़बेंगाल में रहने वाले चेंदरू का परिवार दो जून की रोटी का भी मोहताज है। समाचार चैनल में चेंदरू की लम्बी स्टोरी चलने के बाद बस्तर के प्रभारी मंत्री केदार कश्यप ने चेंदरू को 25 हजार रूपए का अनुदान दिया था। लेकिन उसके बाद से कभी, किसी ने इस परिवार की सुध नहीं ली। जबकि नारायणपुर जिले का अबूझमाड़ ही वह क्षेत्र है, जो सबसे ज्यादा नक्सल प्रभावित है। सरकार ने इस क्षेत्र के शिक्षिक बेरोजगारों को सरकारी नौकरी देने का ऐलान किया था, लेकिन यह ऐलान जमीन पर आकर कब का दम तोड़ चुका है। एक ओर जहां बस्तर के भीतरी इलाकों में जाकर कोई काम करना नहीं चाहता तो दूसरी ओर इच्चुक स्थानीय लोग ही उपेक्षित हैं। इस विडंबना से पार पाना बड़ी चुनौती है।
क्या आप चेंदरू को जानते हैं? सवाल अजीब लग सकता है - कौन चेंदरू? 1960 के दशक में एक 10 साल का माडिय़ा आदिवासी अंतरराष्ट्रीय नायक बनकर उभरा था। चेंदरू पर स्वीडिश फिल्मकार अर्ने सुकेड्राफ की पत्नी एस्ट्राइड सुकेड्राफ ने एक किताब लिखी थी। इस किताब का विलियन सैमसंग ने अंग्रेजी अनुवाद किया। बाद में अर्ने ने 10 साल के चेंदरू के जीवन का पूरे 2 साल तक फिल्मांकन किया। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर चेंदरू और उसका शेर नामक यह फिल्म बेहद कामयाब रही। जिसके बाद किसी अबूझमाडिय़ा को पहली बार विदेश जाने का भी अवसर मिला। बाद में फ्रांस में भी चेंदरू एट सन टाइगर नाम की पुस्तक छपी। अमेरिका में भी इसी दौरान चेंदरू : द ब्वाय एंड द टाइगर के नाम से किताब प्रकाशित हुई। अभी कुछ समय पहले ही चेंदरू और उसके जीवन पर एक समाचार चैनल ने घंटेभर का विशेष कार्यक्रम भी प्रसारित किया था और उसकी वर्तमान बुरी हालत की परतें खोली थी। अबूझमाड़ के इसी चेंदरू का बेटा शिक्षक बनना चाहता है।
चेंदरू की कहानी विदेशों में शायद इसीलिए पहचान बना पाई कि एक 10 साल के लड़के का दोस्त एक व्यस्क शेर था। चेंदरू सारा दिन इसी शेर के साथ जंगलों में घूमता, शिकार करता। शायद विदेशों में इस कहानी की लोकप्रियता टारजन जैसी फिल्मों की वजह से हुई। टारजन को काल्पनिक पात्र माना जाता है, लेकिन भारत के बेहद पिछड़े परिवेश में एक वास्तविक टारजन का हीरो बन जाना वाकई चकित करने वाला है। चेंदरू तो अनपढ़ था, किन्तु उसने अपने बच्चों को पढ़ाया। उसका बेटा जयराम शिक्षाकर्मी बनना चाहता है। वह बस्तर जैसे पिछड़े इलाके खासकर अबूझमाड़ में शिक्षा की अलख जगाने का इच्छुक है। वैसे, एक नंगी सच्चाई यह भी है कि नारायणपुर जिले के गड़बेंगाल में रहने वाले चेंदरू का परिवार दो जून की रोटी का भी मोहताज है। समाचार चैनल में चेंदरू की लम्बी स्टोरी चलने के बाद बस्तर के प्रभारी मंत्री केदार कश्यप ने चेंदरू को 25 हजार रूपए का अनुदान दिया था। लेकिन उसके बाद से कभी, किसी ने इस परिवार की सुध नहीं ली। जबकि नारायणपुर जिले का अबूझमाड़ ही वह क्षेत्र है, जो सबसे ज्यादा नक्सल प्रभावित है। सरकार ने इस क्षेत्र के शिक्षिक बेरोजगारों को सरकारी नौकरी देने का ऐलान किया था, लेकिन यह ऐलान जमीन पर आकर कब का दम तोड़ चुका है। एक ओर जहां बस्तर के भीतरी इलाकों में जाकर कोई काम करना नहीं चाहता तो दूसरी ओर इच्चुक स्थानीय लोग ही उपेक्षित हैं। इस विडंबना से पार पाना बड़ी चुनौती है।
शुक्रवार, 7 मई 2010
अटका-मटका, मारो-फटका
अपन ने अपने ब्लाग का वर्ग बदल लिया है। क्या करें, मजबूरी थी। भाई-दीदी लोग टिप्पणी करने में भी कंजूसी कर रहे थे। कंजूसी क्या कर रहे थे, समाचारों को पसंद नहीं कर पा रहे थे। अब जब पसंद ही नहीं आएगा तो टिप्पणी क्या खाक करेंगे? ...तो इसलिए फुल एंड फाइनल अब छत्तीसगढ़ खबर में
मौज और मस्ती
चायपत्ती सस्ती
पुराने विचार नस्ती।
पिछले तीन महीनों से लगातार ब्लाग पढऩे और शीर्ष पर चढऩे वाले ब्लागों को देखने के बाद यह नतीजा निकला है कि अब मैं भी
अटका-मटका
मारो-फटका
झूमो-झटका
उठाओ-पटका
आओ-खाओ
पिओ-सुस्ताओ
सोओ-मस्ताओ...
..टाइप का कुछ लिखने की कोशिश करूंगा। क्षमा कीजिएगा, पर कोशिश करूंगा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि आज से पहले कभी इस तरह की चीजें लिखी नहीं है। जानता हूं कि इसके बाद भी कोई गारंटी नहीं है पसंद ही किए जाएं, पर रिस्क लेने में खर्च क्या होना है? तो मित्रों, आज से अपन भी नए सिरे से मैदान में उतर रहे हैं। स्वागत नहीं करेंगे क्या?
मौज और मस्ती
चायपत्ती सस्ती
पुराने विचार नस्ती।
पिछले तीन महीनों से लगातार ब्लाग पढऩे और शीर्ष पर चढऩे वाले ब्लागों को देखने के बाद यह नतीजा निकला है कि अब मैं भी
अटका-मटका
मारो-फटका
झूमो-झटका
उठाओ-पटका
आओ-खाओ
पिओ-सुस्ताओ
सोओ-मस्ताओ...
..टाइप का कुछ लिखने की कोशिश करूंगा। क्षमा कीजिएगा, पर कोशिश करूंगा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि आज से पहले कभी इस तरह की चीजें लिखी नहीं है। जानता हूं कि इसके बाद भी कोई गारंटी नहीं है पसंद ही किए जाएं, पर रिस्क लेने में खर्च क्या होना है? तो मित्रों, आज से अपन भी नए सिरे से मैदान में उतर रहे हैं। स्वागत नहीं करेंगे क्या?
मंगलवार, 4 मई 2010
जहर चाटने के बाद छटपटाते रमन
- नरेश सोनी -
सामान्य बुद्धि का कोई भी व्यक्ति यह बेहतर जानता है कि जहर का सेवन कितना घातक होता है। शायद इसीलिए कांग्रेस इस जहर को चाटने से बचती रही है। उसे यह भलीभांति मालूम था और है कि इससे मौत भी हो सकती है। लेकिन छत्तीसगढ़ की नब्ज पर हाथ धरे बैठे मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को शायद यह मालूम नहीं था कि 'यह गरल कितनी छटपटाहट देगा? नतीजतन उन्होंने यह गरल धारण कर लिया और अब जाहिर है कि परेशान हो रहे हैं।
मामला सिंह बनाम सिंह का है। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के एक लेख का सार यह निकला कि वे अपनी ही केन्द्र सरकार के गृहमंत्री पी. चिदम्बरम की नक्सल नीतियों से सहमत नहीं है। मसला क्योंकि छत्तीसगढ़ से भी जुड़ा था, इसलिए यहां के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह का लाल-पीला होना लाजिमी था। तो बात यहां तक पहुंची कि डॉ. सिंह ने भी अखबारों में अपना लम्बा-चौड़ा लेख छपवा लिया। इस लम्बे-चौड़े लेख की भाषा से दिग्विजय सिंह ने असहमति जाहिर की और डॉ. रमन सिंह को एक पत्र लिख मारा। बस, छत्तीसगढ़ में अभी यही सब कुछ चल रहा है। दिग्विजय सिंह खुली चर्चा की चुनौती दे रहे हैं और डॉ. रमन सिंह उसे स्वीकार कर रहे हैं। दरअसल, डॉ. रमन सिंह 6 वर्षों से छत्तीसगढ़ से नक्सलवाद के खात्मे के लिए प्रयासरत् रहे हैं। इसके लिए उन्हें लम्बी जुगत भी लगानी पड़ी। सबसे बड़ी समस्या जनमत तैयार करने की थी। इससे भी बड़ी समस्या केन्द्रीय मदद लेना थी। लेकिन केन्द्र सरकार नक्सलवाद को बड़ी समस्या मानने से ही हिचकती रही। तो सबसे पहले तो नक्सलवाद को सबसे बड़ी चुनौती साबित करना ही समस्या थी। इसमें कामयाबी मिली तो केन्द्र से मदद के दरवाजे खुल गए और नक्सलियों के खात्मे की तैयारियां भी शुरू हो गई। ऐसे में नक्सलियों का बौखलाना लाजिमी था। नतीजतन सलवा जुड़ूम से जुड़े लोगों, जवानों का कत्लेआम शुरू हो गया।
क्या कोई भी लड़ाई बिना कुर्बानी के नतीजे तक पहुंच सकती है? कांग्रेस ने लड़ाई लडऩे का कभी मन ही नहीं बनाया। वह कुर्बानियों से डरती रही। नतीजतन नक्सली फलते-फूलते और अपने को मजबूत करते रहे।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद ने गहरी जड़ें काफी पहले ही जमा ली थी। लेकिन अविभाजित मध्यप्रदेश की तत्कालीन दिग्विजय सिंह सरकार हो या विभाजन के बाद छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी, दोनों ने ही इन जड़ों को काटने के बजाए इससे परहेज करना ज्यादा मुनासिब समझा। यही वजह रही कि कांग्रेस के इस 10 वर्षीय (7 साल दिग्विजय सिंह, 3 साल अजीत जोगी) कार्यकाल में नक्सलियों की समानांतर सरकार चलती रही और अपने आपको मजबूत करती रही। इस दौरान क्योंकि बस्तर के भीतरी इलाकों तक सरकार की पहुंच नहीं बन पाई (या फिर जानबूझकर इस इलाके को छुआ ही नहीं गया) इसलिए धीरे-धीरे पूरा बस्तर नक्सलियों की जद में आ गया। छत्तीसगढ़ का मुख्यमंत्री बनने के बाद डॉ. रमन सिंह के सामने सिर्फ दो ही मसले थे। पहला राज्य का विकास और दूसरा नक्सलवाद से निपटने की चुनौती।
कई लोग यह सवाल उठाते रहे हैं कि जब राज्य में सब कुछ 'ठीक-ठाक चल रहा था तो नक्सलियों को 'उंगली क्यों की गई? पर यहां इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि नक्सलवाद कभी सामाजिक समस्या थी, पर बदलाव के साथ अब यह आपराधिक चुनौती बन चुकी है। किसी अपराधी का विरोध नहीं करने पर वह अपने को मजबूत करता चला जाता है और फिर कोई भी उससे बच नहीं पाता। नक्सलियों ने बस्तर के बीहड़ों से बाहर निकलकर शहरी क्षेत्रों में भी पैर पसारना शुरू कर दिया था। ऐसे में यदि डॉ. रमन सिंह की सरकार मुश्तैद नहीं होती तो नक्सली, शहरों में चुनौती देने की स्थिति में आ गए होते। राजधानी रायपुर भी नक्सलियों की आमद से अछूती नहीं रह गई थी। राजधानी के अलावा दुर्ग-भिलाई, राजनांदगांव, धमतरी जैसे इलाकों में नक्सलियों की धरपकड़ यह जाहिर करती है कि उनके मंसूबे क्या रहे होंगे। इसलिए कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह से सहमति जाहिर करने से पहले यह भी विचार करना चाहिए कि नक्सलवाद जल्द ही शहरी क्षेत्रों के लिए भी चुनौती साबित होने जा रहा था। जिस बड़े पैमाने पर शहरों से असलहा बरामद हुआ और नक्सलियों के प्रवक्ता के भिलाई में रहने की सूचना मिली, उसका क्या मतलब था?
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सामान्य बुद्धि का कोई भी व्यक्ति यह बेहतर जानता है कि जहर का सेवन कितना घातक होता है। शायद इसीलिए कांग्रेस इस जहर को चाटने से बचती रही है। उसे यह भलीभांति मालूम था और है कि इससे मौत भी हो सकती है। लेकिन छत्तीसगढ़ की नब्ज पर हाथ धरे बैठे मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को शायद यह मालूम नहीं था कि 'यह गरल कितनी छटपटाहट देगा? नतीजतन उन्होंने यह गरल धारण कर लिया और अब जाहिर है कि परेशान हो रहे हैं।
मामला सिंह बनाम सिंह का है। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के एक लेख का सार यह निकला कि वे अपनी ही केन्द्र सरकार के गृहमंत्री पी. चिदम्बरम की नक्सल नीतियों से सहमत नहीं है। मसला क्योंकि छत्तीसगढ़ से भी जुड़ा था, इसलिए यहां के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह का लाल-पीला होना लाजिमी था। तो बात यहां तक पहुंची कि डॉ. सिंह ने भी अखबारों में अपना लम्बा-चौड़ा लेख छपवा लिया। इस लम्बे-चौड़े लेख की भाषा से दिग्विजय सिंह ने असहमति जाहिर की और डॉ. रमन सिंह को एक पत्र लिख मारा। बस, छत्तीसगढ़ में अभी यही सब कुछ चल रहा है। दिग्विजय सिंह खुली चर्चा की चुनौती दे रहे हैं और डॉ. रमन सिंह उसे स्वीकार कर रहे हैं। दरअसल, डॉ. रमन सिंह 6 वर्षों से छत्तीसगढ़ से नक्सलवाद के खात्मे के लिए प्रयासरत् रहे हैं। इसके लिए उन्हें लम्बी जुगत भी लगानी पड़ी। सबसे बड़ी समस्या जनमत तैयार करने की थी। इससे भी बड़ी समस्या केन्द्रीय मदद लेना थी। लेकिन केन्द्र सरकार नक्सलवाद को बड़ी समस्या मानने से ही हिचकती रही। तो सबसे पहले तो नक्सलवाद को सबसे बड़ी चुनौती साबित करना ही समस्या थी। इसमें कामयाबी मिली तो केन्द्र से मदद के दरवाजे खुल गए और नक्सलियों के खात्मे की तैयारियां भी शुरू हो गई। ऐसे में नक्सलियों का बौखलाना लाजिमी था। नतीजतन सलवा जुड़ूम से जुड़े लोगों, जवानों का कत्लेआम शुरू हो गया।
क्या कोई भी लड़ाई बिना कुर्बानी के नतीजे तक पहुंच सकती है? कांग्रेस ने लड़ाई लडऩे का कभी मन ही नहीं बनाया। वह कुर्बानियों से डरती रही। नतीजतन नक्सली फलते-फूलते और अपने को मजबूत करते रहे।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद ने गहरी जड़ें काफी पहले ही जमा ली थी। लेकिन अविभाजित मध्यप्रदेश की तत्कालीन दिग्विजय सिंह सरकार हो या विभाजन के बाद छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी, दोनों ने ही इन जड़ों को काटने के बजाए इससे परहेज करना ज्यादा मुनासिब समझा। यही वजह रही कि कांग्रेस के इस 10 वर्षीय (7 साल दिग्विजय सिंह, 3 साल अजीत जोगी) कार्यकाल में नक्सलियों की समानांतर सरकार चलती रही और अपने आपको मजबूत करती रही। इस दौरान क्योंकि बस्तर के भीतरी इलाकों तक सरकार की पहुंच नहीं बन पाई (या फिर जानबूझकर इस इलाके को छुआ ही नहीं गया) इसलिए धीरे-धीरे पूरा बस्तर नक्सलियों की जद में आ गया। छत्तीसगढ़ का मुख्यमंत्री बनने के बाद डॉ. रमन सिंह के सामने सिर्फ दो ही मसले थे। पहला राज्य का विकास और दूसरा नक्सलवाद से निपटने की चुनौती।
कई लोग यह सवाल उठाते रहे हैं कि जब राज्य में सब कुछ 'ठीक-ठाक चल रहा था तो नक्सलियों को 'उंगली क्यों की गई? पर यहां इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि नक्सलवाद कभी सामाजिक समस्या थी, पर बदलाव के साथ अब यह आपराधिक चुनौती बन चुकी है। किसी अपराधी का विरोध नहीं करने पर वह अपने को मजबूत करता चला जाता है और फिर कोई भी उससे बच नहीं पाता। नक्सलियों ने बस्तर के बीहड़ों से बाहर निकलकर शहरी क्षेत्रों में भी पैर पसारना शुरू कर दिया था। ऐसे में यदि डॉ. रमन सिंह की सरकार मुश्तैद नहीं होती तो नक्सली, शहरों में चुनौती देने की स्थिति में आ गए होते। राजधानी रायपुर भी नक्सलियों की आमद से अछूती नहीं रह गई थी। राजधानी के अलावा दुर्ग-भिलाई, राजनांदगांव, धमतरी जैसे इलाकों में नक्सलियों की धरपकड़ यह जाहिर करती है कि उनके मंसूबे क्या रहे होंगे। इसलिए कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह से सहमति जाहिर करने से पहले यह भी विचार करना चाहिए कि नक्सलवाद जल्द ही शहरी क्षेत्रों के लिए भी चुनौती साबित होने जा रहा था। जिस बड़े पैमाने पर शहरों से असलहा बरामद हुआ और नक्सलियों के प्रवक्ता के भिलाई में रहने की सूचना मिली, उसका क्या मतलब था?
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